पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७१४

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७१ योग 'चिन्तनीय कोई भी वस्तु नहीं रहती, केवल सस्कार- | गुणोंका कार्य होनेके कारण उल्लिखित सभी धर्म उसमें है। मात्र अवशिष्ट रहता है। ___क्षिप्तादि पांच चित्तभूमिकी बात कही गई जिसमें किसी भी विषयका अवलम्बन किये विना चित्त रजोगुणके सम्पूर्ण आविर्भावका नाम क्षिप्त अवस्था है । अवस्थान कर सके, यह हो नहीं सकता। चित्तभूमिमें इसमें उन्मत्तकी तरह चित्त जागतिक विषय-व्यापारमें प्रतिक्षण हजारों विषय आ कर उपस्थित होते हैं, ऐसी सर्वदा व्याप्त रहता है, क्षणकाल भी परमार्थ पथ पर अवस्था में सभी विषयोंसे वित्तवृत्तिको विलकुल रोक स्थिररूपसे नहीं रह सकता। मूढ अवस्था इससे भी देना किस प्रकार सम्भव हो सकता है। इस पर थोड़ा गौर कर सोचनेसे मालूम होगा, कि संप्रज्ञातयोगों निकृष्ठ है, उस समय तमोगुणका बिलकुल आविर्भाव होनेके कारण चित्त मोहजालमें सम्पूर्ण आच्छन्न हो भले यदि चित्त हजारों विषयका परित्याग कर सिर्फ एक विषयका अवलम्बन कर रह सके, तो फिर कुछ उन्नति | चुरेका विचार नहीं कर सकता । उस समय मनुष्य और लाभ करनेमें बिलकुल निरवलम्व रहना पड़ेगा इसमें । पशु आदिम भेद नहीं रहता, एसा कहनम काइ अत्युक्ति न होगी। विक्षिप्त अवस्था पूर्वोक्त क्षिप्त अवस्थासे कुछ थाश्चर्य ही क्या! उत्कृष्ट है। असंप्रज्ञात योग ही योगको चरमभूमि है। असम्प्र- । उर का चित्तको जय करने में पहले उसके विपय अर्थात् ज्ञात योगके सिद्ध होनेसे निर्वाण मुक्तिलाभ होता है। योगके आलम्वन स्थूल पदार्थको ही ग्रहण करना कर्तव्य जिस किसी प्रकार चित्तकी वृत्ति हो कर उसके प्रसवमें | है। पोछे सङ्कोच करनेकी जितनो शक्ति लगा सके, प्रतिविम्वित होनेको ही बन्धन कहते हैं। उतने ही सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम विपयमें अवगाहन चित्त वृत्तिके पुरुषमें पतित नहीं होनेसे ही मुक्ति कर पाछे यहां तक कि विषयका परित्याग करके भी होती है। चित्तके होनेसे ही पुरुपमे पतित होता है, किन्तु नि स्थिर रह सकता है । चित्तको जय कर सकनेसे -संप्रज्ञातसमाधिमे चित्तकी कोई भी वृत्ति नहीं रहती, फिर योगको आवश्यकतो नहीं रहती। . योग द्वारा सभी वृत्ति निरुद्ध होती है। यही योगका । _____एकाग्रावस्थामें सात्त्विक वृत्तिका उदय ('चित्त और चरम लक्ष्य है। पुरुषका भेदस्फूरण ) होता है। उस समय रजोगुणका __ "क्षिणोति च क्लेशान्" इस सूत्रभाष्यके अभिप्रायानुसार अंश अल्प मात्रामे सत्त्वकी सहायता करता है । एकान 'क्लेशकर्मादिपरिपन्थी चित्तवृत्तिनिरोधो योगः" अर्थात् चित्त अवस्था और निरुद्ध अवस्था हो योगभूमि है। इनमें से वृत्तिका निरोध क्लेशकर्मादिका विनाशक होता है, इसी | पकायावस्थामें सम्प्रज्ञात योग और निरुद्ध अवस्थामें से उसको योग कहते हैं। जिस उपायका अवलम्बन असम्प्रज्ञात योग होता है। करनेसे क्लेश, कर्म, विपाक और आशयसे अतीत हो ___'पुप्रकृतयावियोगोऽपि योग इत्यभिधीयते ।' (योगवार्तिक) सके वही योग है। जिस उपाय द्वारा पुरुषप्रकृतिसे वियुक्त होता है, चित्त प्रख्या-प्रवृत्ति और सिथितिरूपको यथाक्रम | वही योग हैं। इसका तात्पर्य यह, कि सृष्टिके आदिमें सत्त्व, रज और तमः स्वभाव कहा है। चित्त त्रिगुणा प्रत्येक पुरुषका एक एक सूक्ष्म शरीर उपाधिरूपमें सृष्ट त्मक नहीं होनेसे उनमें प्रख्यादि धर्मको सम्भावना होता है। वह प्रलय तक रहता है। जैसे स्फटिककी नहीं रहती, कारणका गुण हा कार्यमें संक्रामित होता उपाधि जवाकुसुम, मुखकी उपाधि दर्पण, सूर्य और है। प्रख्या शब्दसे प्रसादलाघव, प्रीति आदि सभी चन्द्रमाकी उपाधि जलाशय है, वैसे ही इस लिङ्गशरीर सात्त्विक धर्म, प्रवृत्तिशब्दसे परिताप, शोक आदि | वा सूक्ष्मशरीर पुरुपकी उपाधि है। जिस प्रकार जवा- ‘समो राजसधर्म और स्थिति शब्दसे गौरव आवरण कुसुमरूप उपाधिका धर्म रक्तिमागुणसन्निहित स्वच्छ आदि सभी तामस धर्म जानने होंगे। चित्त तीनों | स्फटिक पर प्रतिविम्वित होता है, उसी प्रकार दोनों