पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७१६

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. योग ७३३ है। मैं अतिशय मूढभावमें निद्रित था, मेरा शरीर भारी और किस प्रकार विवेकख्यातिस्वरूप कार्य करने में समर्थ . मालूम पड़ता है, चित्त थक गया जिसे सुस्ती आ गई हो होगी ? इस आशङ्काको दूर करनेके लिये भाष्यकारने है, चित्त बिलकुल है ही नहीं, ऐसा जान पड़ता है, यह कहा है, कि क्लिष्टप्रवाह पतित होने पर भी अक्लिप्रवृत्ति- तामसिक स्मरण है। निद्राकालके तमोविषयमें चित्त को अक्लिष्टता नष्ट नहीं होती, जो जहां है, वह वही रहता है, अक्लिप्रवृत्ति क्लिष्टको अन्तःपाती होने पर क्लिष्ट नहीं वृत्ति नहीं होनेसे प्रबुद्ध व्यक्तिको उक्त प्रकारका स्मरण | नहीं हो सकता, चित्तमें आश्रित वृत्तिविषयमें स्मृति होती। क्लिएके छिद्रमें अक्लिप्रवृत्ति हो सकती। क्लिष्टवृत्तिको प्रवृत्ति और अक्लिटवृत्तिको निवृत्ति- भी नहीं हो सकती थी। अतएव यह खोकार करना पडेगा कि निटाकालमें तमोविषय में चित्तको ति मार्ग कहा जा सकता है। विषयलोलुप घोर संसारोके हुई थी. अतः निदा एक प्रत्ययविशेष अर्थात अनभव है। चित्तमें भी वैराग्य देखा जाता है. श्मशानक्षेत्रमें वहतेरे ऐसा अनुभव करते हैं, यह क्लिप्टका छिद्र है, इस छिद्र में ___ अनभूत विषयका जो असरप्रमोष (अचौथ) है। अक्लिष्ट वृत्ति हो सकती है। उसे स्मृति कहते हैं। चित्त, प्रमाण, विपर्यय आदि | फिर उग्रतपा ऋषियोंका भी योगभ्रश सुना जाता द्वारा अधिगत पदार्थ से अतिरिक्त पदार्थ का विषय नहीं . है, यह अक्लिष्टका छिद्र है, इस छिद्र में क्लिष्टवृत्ति प्रवल. करता, ऐसी चित्तवृत्तिका नाम स्मृति है। संस्कारको । द्वार बना कर अनभव होमतिका जनक होता वगम उत्पन्न होती है। लिए और अक्रिष्ट इन दोनों ___ यह स्मृति दो प्रकारको है.-भावितस्मतव्य और। पक्षके कोच संसारक्षेत्रमें घमसान युद्ध चलता है। दोनों- अभावितस्मत्तष्य है। जिसका स्मर्तव्य (HRU का ही विचरणस्थल चित्तभूमि है। " पहले अक्लिष्टपृत्तिको विषय ) भावित अर्थात् कल्पित है उसे भावितस्मत्तव्य । आश्रय कर क्लिष्टयत्तिका और जिसके स्मरणका विषय पहलेकी तरह कल्पित निरोध करना होगा। पीछे वैराग्य द्वारा अक्लिष्टवृत्तिको नहीं'उने अभावितस्मतव्य कहते है। ". भी निरोध कर सकनेसे असम्प्रज्ञातयोग होता। संस्कार ___ उक्त पांचो वृत्तियां फिर दो भागों विभक्त है- ही संस्कारका नाशक. होता है । अक्लिष्ट संस्कार द्वारा क्लिष्ट और अक्लिष्ट । अविद्यादि क्लेश जिसका कारण है.. क्लिष्ट संस्कार नष्ट होता है। जिससे संसारबन्धन होता है, वही किवति । उक्त पाँच प्रकारके अलावा और कोई चित्तवृत्ति नहीं अक्लिएवृत्ति इसके विपरीत है, इसमें संसारबन्धन है। इन चित्तवृत्तियोंका निरोध करना होगा। क्योंकि, धीरे धीरे क्षीण होता। चित्तके साथ पुरुषका संयोग होनेसे चित्तको सभी अविद्यादि क्लेश जिन सव वृत्तियोंका कारण है, वृत्तियां पुरुषो उपचरित होती हैं । पुरुष स्वच्छ और जिससे सुख दुःख हुमा करता है, जो कर्मानुसार फल केवल निगुण है । जिस प्रकार स्वच्छ स्फटिकके समीप देने में क्षेत्रस्वरूप है उसे क्लिष्ट वा सांसारिक चित्तवृत्ति । लाल जवाकुसुम लानेसे स्फटिक लाल और नीला कहते हैं। ख्याति अर्थात् चित्त और पुरुषका भेदज्ञान | अपराजिता लानेसे स्फटिक भी नीला हो जाता है, जिसका विषय है. जो सत्त्व, रज और तमोरूप तीनों परन्तु सच पूछिये तो स्फटिकके कोई भी. वर्ण नहीं गुणोंका अविकार है या कार्यारम्भका विरोधी है, उसे! उपाधिका वर्ण उसमें प्रतिफलित होता है, उसी प्रकार अलिष्टवृत्ति कहते हैं। अक्लिष्टयत्तिका विषय ख्याति । केवल निर्मल पुरुषमें सुखदुःख मोह आदि चित्तवृत्तिके. अर्थात् चित्त और पुरुषका विवेकज्ञान है, ऐसा होनेसे प्रतिविम्बित होनेसे पुरुष उनके साथ स्वारूप्य लाभ कर फिर चित्तका कार्य नहीं रह पाता। अपनेको सुखी दुःखी समझता है । यथार्धा पुरुषके सुख विवेकख्याति पर्यन्त ही प्रकृतिका चेष्टा है, उस | दुःख कुछ भी नहीं है। यह केवल वृत्तिका उपरागमात्र हैं। समय चित्त आत्माकी तरह निर्गुण भावमें कुछ देर ठहर कर आखिर विनष्ट हो जाता है। ये सभी वृत्तियां सुख, दुःख और मोहात्मक हैं। इन . • सचराचर क्लिटयत्ति किस प्रकार उत्पन्न होगी ? उत्तरोत्तर विषयासक्तिको बढ़ावो है, . पहले उसोका सव वृत्तियोंका निरोध कर सकनेसे जो सब क्लिटवृत्ति . Vol. IVIII, 179