पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७१७

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७१४ योग निरोध करना होगा. अक्लिष्टयत्ति अर्थात् निवृत्तिमार्गमें, ज्योतिका प्रकाश होता है उसके द्वारा भी चित्तको पहले धर्म वृत्तियोंका निरोध नहीं करना पड़ेगा। पहले स्थिरता हो सकती है। ज्योतिका साक्षात्कार भी चित्त -निवत्तिमार्गका अवलम्बन कर प्रवृत्तिमार्ग में बाधा देनी । स्थैर्यका एक उपाय है। होगी। यह अक्लिष्टत्ति दूढ़ होनेसे अन्तमें उसका ६। “वीतरोग-विषय वा चित्तम् ।" (११३७) परित्याग कर देनेसे नुकसान नहीं होता। ___ अथवा, जो वीतराग (विषयविरक्त) हैं, उनके विषय में योगके द्वारा चित्तवृत्ति निरुद्ध होनेसे पुरुष पर वृत्ति- ध्यान करनेसे भी चित्त स्थिर होता है ; अर्थात् निष्काम की छाया नहीं पड़ती। उस समय पुरुष अपने स्वरूप- महात्माको ध्यान भी चित्तस्थैर्यका एक उपाय है। में अवस्थान करता है। ७। "स्वप्ननिद्राज्ञानावलम्बन वा।" (३८) ____ इस चित्तवृत्तिनिरोधको प्रणाली क्या है ? पतञ्जलिने अथवा, स्वप्नज्ञान या निद्राज्ञानका अवलम्बन करनेसे भिन्न भिन्न आठ प्रकारको प्रणालीका उल्लेख किया है। भी चित्तस्थिर होता है । अर्थात् स्वप्नमें मूर्ति-विशेष इनमेंसे जिस किसीका अनुसरण करनेसे चित्तवृत्तिका या सात्त्विक वृत्तिका आश्रय करके भी चित्तस्थैर्य लाभ निरोध किया जा सकता है। किया जा सकता है। श्म | "अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोधः।" ( योगसू० १११२) ८। “यथाभिमतध्यानात् वा ।" (१॥३६) ___ अभ्यास और वैराग्य द्वारा चिसवृत्तिका निरोध हो ___अपने इच्छानुसार जिस किसी विषयका ध्यान सकता है। करनेसे भी चित्त स्थिर होता है। अर्थात् अभिमतध्यान २। “ईश्वर पूणिधानाद् वा ।" (योगसू० ११२३) भी चित्तस्थैर्यका एक उपाय है। अथवा, ईश्वरके प्रणिधानसे चित्तवृत्तिका निरोध साधनावस्थामें योगाभ्यासके फलसे योगीकी बहुत- होता है। इस सम्बन्धमें भाष्यकारने ऐसा कहा है- सो अलौकिक शक्तियोंका संचार होता है, इन्हें विभूति क्या इसो अभ्यास वैराग्यसे समाधि अति शीघ्र लाभ | या सिद्धि कहते हैं। पातञ्जलदर्शनके तृतीय पादमें इन होती है या और कोई उपाय है ? इसके उत्तर में यही सव सिद्धियोंका सविस्तार उल्लेख है। ये सब प्रकृत कहना है, कि विशेष भक्तिपूर्वक आराधित होनेसे ईश्वर योगसाधनाके पक्षमें नहीं, पर अन्तराय है। प्रसन्न हो कर 'इसका अभीष्ट सिद्ध होवे' इस प्रकार "ते समाधाघुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः- ( ३।३२) अनुग्रह करते हैं । एक प्रकार सङ्कल्प द्वारा योगीका अर्थात् समाधिरहितके पक्षमें ये सव विभूति समझी समाधिलाभ सुलभ हो जाता है। (११२३ व्यासभाष्य) जाती हैं किन्तु समाधियुक्त रोगीके पक्षमें यह उपसर्ग- ३। "पूच्छई नविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ।" (योगसू० २३४) मात्र हैं, यह उपसर्ग क्या है ? अथवा, प्राणके निःसरण और विधारण द्वारा भी जिससे चित्तका विक्षेप होता है अर्थात् एकाग्रता चित्तवृत्तिका निरोध हो सकता है, अर्थात् प्राणायाम भी | विनष्ट होती है, उसे अन्तराय कहते हैं । व्याधि, समाधिलाभका एक दूसरा उपाय है। स्त्यान; संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, ४॥"विषयवतो वो पूवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिवन्धनी"(१।३५, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्त्व पे ६ अन्तराय है। ____ अथवा, इन्द्रियविशेषमें धारणा द्वारा गन्धादि धातु, वायु, पित्त और कफके वैषम्य के लिये व्याधि, विषयका साक्षात्कार होनेसे भी चित्त स्थिर होता है। चित्तको कार्यकारिता शक्तिका अभाव ही स्त्यान । यह अर्थात् नासाग्र, जिह्वामूल आदिमें धारणा करनेसे योगी वस्तु इस प्रकार है वा नहीं, इस प्रकारका ज्ञान संशय; अलौकिक गन्ध रूप रस स्पर्श शब्द: आदिका अनुभव | समाधिके उपायका अनुष्ठान प्रमाद तमोगुणकी अधि- करते हैं । इससे उनका चत्त निविष्ट हो जाता है।। कतासे चित्तके और कफादिकी अधिकतासे शरीरके अतएव चित्त स्थैर्यका यह भी एक उपाय है। गुरुता प्रयुक्त प्रयत्नके अभावका नाम आलस्य, सादा ५.। "विशोका वा ज्योतिष्मती।" (१॥३६) विषयसंयोगरूप तृष्णाविशेषका नाम अविरति ; एक __अथवा, हत्पद्ममें धारणा करनेसे जिस शोकरहित वस्तुको दूसरी वस्तु. जाननेका नाम भ्रान्तिदर्शन और