पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७१९

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७१६ योग इस अहिंसा वृत्तिकी स्वच्छताके लिये सत्यादिका | इसके लिये आसनका उपदेश है, कि जिस भावमें देर तक अनुष्ठान करना होता है, नहीं करनेसे असत्य आदि | रहनेसे भी किसी प्रकारका कष्ट न हो, वही स्थिरसुख दोषोंसे अहिंसा मलिन हो जाती है । यथार्थ वाक आसन है । स्थिरसुख आसनमें कुछ भी नियम नहीं और मनको सत्य कहते हैं । अर्थात् जिस प्रकार प्रत्यक्ष, | है। विना गुरुके उपदेशके आसन-शिक्षा नहीं होती, अनुमिनि और शब्दको लिये वाक्य और मनका ज्ञान इसमे विपरीत फल होता है तथा अति उत्कट व्याधि- हुआ है, उसी प्रकार श्रोताके जिससे ज्ञान उत्पन्न हो, प्रस्त होना पड़ता है। आसन सीखनेके समय बहुत ऐसा कहनेसे सत्य कहा जाता है। कष्ट मालूम होता है। एक बार अच्छी तरह अभ्यस्त प्रतिग्रह छोड कर दूसरेके द्रव्य लेनेको स्लेय (धौर्य) | हो जानेसे फिर कष्ट नहीं होता। जब तक विना क्लेश- कहते हैं। उसके अभावका नाम अस्तेय है। केवल के आसन पर न बैठ सके, तब तक अभ्यास करना चूरीका वर्जन ही नहीं, दूसरेके द्रव्य पर अपनी इच्छा होगा। यह आसन दो प्रकारका है। वस्त्र, अजिन भी नहीं दौड़ानो चाहिये । अष्टाङ्ग मैथुन-निवृत्तिका नाम | और कुश आदि वाह्य आसनका नाम पन और खस्ति- ब्रह्मचर्य हैं। विषयके साथ उपभोग वस्तुका उपार्जन, कादि शरीर आसन है । योगप्रदीपमें योगसाधन आसन. रक्षा, क्षय, सड़ और हिसा दोपका अनुभव कर उससे का विस्तृत विवरण लिखा है। विरत रहनेका नाम अपरिग्रह है। विषय-वैराग्यका दूसरा ___ आसनसिद्धिके वाद प्राणायाम करना होता है। नाम अपरिग्रह भी है । "शौच सन्तोषतपास्वाध्यायेश्वर श्वासप्रश्वासके गतिविच्छेद अर्थात् प्राणवायुके संयम प्रणिधानानि नियमाः ।" ( योगस० २।३२ ) शौच, सन्तोष, को प्राणायाम काहते है। रेचक, पूरक और कुम्भक यही तपस्या, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पांच प्रकारके तीन प्रकारके प्राणायाम हैं। वाहरकी वायुको भोनर नियम हैं । मृत्तिका और जलादिकी मार्जना और मेध्य करनेका नाम श्वास और भीतरकी वायुको बाहर करने- पवित्न वस्तु खानेका नाम वाह्य शौच; चित्तके मल का नाम प्रश्वास है। इन दोनों प्रकारको क्रियाका निरोध प्राणायाम है। प्राणायाम देखो। ( ईर्षासूयादि ) दर परनेका नाम अन्तम्शौच ; क्षुधा, ___ यम, नियम और आसन जयके वाद प्रत्याहार योग- तृष्णा, शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वसहिष्णुताका नाम तपस्या; उपनिषद्, गीता आदि मोक्षशास्त्र पढ़नेसे अथवा का अनुष्ठान करना होता है। प्रत्याहार-"स्वविषया. सम्प्रमोपे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रिययाणां प्रत्याहारः" ओङ्कार जपनेका नाम स्वाध्याय और परमगुरु परमेश्वर- मे समस्त कम अर्पण करने का नाम ईश्वरप्रणिधान है। ( योगसू० २।५४ ) चित्त शब्दादि विषयसे जब निवृत्त इन्हें नियम कहते हैं। विशेष विवरण नियम शब्दमे देखो। होता, तव इन्द्रियां भी निश्चल हो कर चित्तका अनु. करण करती है। इसीको प्रत्याहार कहते हैं। इन्द्रियोंका ____यम और नियम ये दो जब सिद्ध हो जाये तीसरा योग करना चाहिये। तीसरा योगाङ्ग आसन है। अपना अपना विषय शब्दादिके साथ नहीं मिलनेसे चित्तके . स्थिरसुखशासन।" (योगसू० २४६) स्वरूपको मानो अनुकरण होता है। इंद्रियनिरोधका नाम ही प्रत्याहार है । प्रत्याहार देखो। स्थिरभावमे अधिक देर तक बिना कष्टसे मालूम ___ यज्ञादि पांच वहिरङ्ग-साधनके बाद अन्तरङ्ग-साधन किये रहनेको आसन कहते हैं। यही आसन योगका आवश्यक है। अङ्ग है। योगभाग्य पद्मासन, धीरासन, भद्रासन, __ दूसरे विषयसे हटा कर नाभिचक्र आदि अन्तर्विषय स्वस्तिक, दण्डासन, सोपाश्रय, पय ङ्क, क्रौञ्चनिसूदन, तथा देवमूर्ति आदि वहिविषयमे चित्तको स्थिर करनेका हस्तिनिसूदन, उष्ननिसूदन, समसंस्थान, स्थिरसुग्व और नाम धारणा है। नाभिस्थान, हृदपद्म, मस्तकज्योतिः, यथासुख आदि आसनका उल्लेख है। लेट जानेसे नीद नासिकाके अग्रभाग, जिह्वाके अप्रभाग आदि आध्या- आती है, अन्य भावमे रहनेसे शरीर धारणमे ही व्यस्त त्मिक देश में अथवा देवमूर्ति आदि वाह्योद्देशमे चित्त रहना पड़ता है तथा अधिक देर तक नहीं रहा जाता, को स्थिर कर सकनेसे ही धारणा होती है।