पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७१८ योग "तपस्विभ्योधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। । "पवित्र स्थानमें आसन संस्थापन करें" यह आसन. कर्मिमभ्यश्चाधिको योगी तस्माद् योगी भवार्जुन ॥" का उपदेश है। 'नासिकाके अभ्यन्तर प्राण और अपने- (गीता ६।४६ ) | को समीकृत करें', यह प्राणायामका उपदेश है। 'वाह्य योगो तपस्वीसे श्रेष्ठ है, ज्ञानोसे श्रेष्ठ है और कौसे भी विषयका संस्पर्श परित्याग करें यह प्रत्याहारका उपदेश श्रेष्ठ है, अतएव हे अर्जुन ! तुम योगो वनो। है। 'ब्रह्मचारि व्रतग्रहण, परिग्रह परित्याग' इत्यादि गोताने पातञ्जल-प्रदर्शित अष्टाङ्ग योगका साधारणतः यमका उपदेश है। 'इन्द्रियको वशीकरण, चञ्चल मनका अनुमोदन किया है,- सयम, आशाका परित्याग' इत्यादि नियमका उपदेश "योगी युद्धति सततमात्मानं रहसि स्थितः। है। 'नासिकान पर दृष्टिधारण, मनको आत्मामें संस्था- एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिमहः ॥" पन' इत्यादि धारणका उपदेश है। 'भगवान में चित्त- (गीता०६।१०)। स्थापन, मनका एकाग्रतासाधन' इत्यादि ध्यानका उप- योगीको निर्जन स्थानमें रह कर आशा और परि- देश है। 'कुछ भी चिन्ता न करे, मनको आत्मा ग्रहका परित्याग करते हुए संयत चित्तले सर्वदा आत्मा- स्थापित रखे', इत्यादि समाधिका उपदेश है। का योगसाधन करना चाहिये। पातालके मतसे योगको चरम अवस्थामें पुरुष वे पवित्रदेश में न उतने ऊँचे और न उतने नीचे स्थानमें, खरूपावस्थान करता है । पुरुष चित्तस्वरूप है, इस कुश, अजिन और वस्त्र विछा कर अपना स्थिर आसन | मतसे वे आनन्दधन नहीं है, अतएव पातालोक्त मुक्ति संस्थापन करे। वहां वे मनको एकाग्र कर तथो चित्त सुख-दुःखके अतीत कैवल्य अवस्था है। इसमें दुखिकी और इन्द्रियको क्रियाको संपत कर आत्मशुद्धिके लिये निवृत्ति तो होती है पर अनन्त सुख नहीं मिलता । आसन पर बैठ योगका अभ्यास करे। गोतामें भगवान्ने योगके फलको अत्यन्त सुख शरीर, मस्तक और ग्रीवाको सीधा तान कर तथा बताया है। दृष्टिको सभी दिशाभोंसे खोंच कर नासिका अग्रभाग जिस अवस्थामै वुद्धिग्राह्य अतीन्द्रिय निरतिशय पर रखते हुए स्थिरभावसे बैठे। सुखको उपलब्धि होती है, जिस अवस्थामें रहनेसे तत्त्व- "प्रशान्तात्मा विगतभी मचारिखते स्थितः । से विध्युति नहीं होती, जिस अवस्थामें उपस्थित होने- मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसोत मत्परः॥" (६।१४) से गुरुतर दुःख भो विचलित नहीं कर सकता, दुःखकी योगी प्रशान्त, निर्भय, ब्रह्मचारि-व्रतधारो और संयत. स्पर्शशून्य इसी अवस्थाका नाम योग है। निर्वेदान्य चित्त हो भगवान में चित्त लगावे । चित्तमें उस योगका निश्चयके साथ अभ्यास करे । अत- संकल्पज सभी कामतामोंका परित्याग कर मन एव गीताके मतसे योगको अवस्था निरतिशय सुख- द्वारा इद्रियोंको सभी विषयोंसे खींच करके योगाभ्यास लाभ होता है। योगसिद्ध होनेसे वह सुख और भी धनी. करे। धारणा द्वारा बुद्धिको वशीभूत करके धीरे धीरे भृत हो कर ब्रह्मानन्दमें परिणत हो जाता है। उपरत होवे। मनको आत्मामें स्थापित कर कुछ भी प्रशान्तचित्त, रजोविहीन, निष्पाप, ब्रह्मभूत योगी चिन्ता न करे। चञ्चल अस्थिर मन जहां तहां दौड़ेगा, उत्तम सुखका अनुभव करते हैं। निष्पाप योगी इस वहांसे उसको खीच कर आत्मामें निविष्ट फरे। (गीता०६४-६) प्रकार आत्माको योगयुक्त करके आसानीसे ब्रह्म-संस्पर्श- जो मोक्षपरायण मुनि वाह्यविषयका संस्पर्श परि- रूप अत्यन्त सुखको प्राप्त होने हैं। जिसका चित्त वाह्यविषयमें अनासक्त है, वे आत्मामें त्याग कर दोनों भूके बीच चक्षुको संस्थापित करके | जो सुख है वही सुख अनुभव करते हैं तथा ब्रह्ममें तथा नासिकाके अभ्यन्तर प्राण और अपनेको समीकृत समाधि करके अक्षय सुख पाते हैं। - कर इन्द्रिय, मन और बुद्धिको संयत करते है, वे ही पातालके मतसे जीव और ईश्वर भिन्न है, योगकी जीवन्मुक्त हैं।