पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७२२

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योग जो चरम अवस्था निवर्वीज समाधि है, उससे केवल कर सकते हैं, उसी प्रकार इच्छा होनेसे ईश्वर-प्रणिधान आत्म-साक्षात्कार होता है ; ईश्वरप्राप्ति होतो है वा नहीं कर सकते हैं। इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। किन्तु गीताके मतसे विक्षिप्त चित्तको एकाग्र भरनेके लिये पतञ्जलिने 'योग द्वारा भगवान्का सङ्ग वा साक्षात्लाभ होता है। साधकको 'क्रियायोग'-का अनुष्ठान करनेका उपदेश संयतचित्त योगी इस प्रकार आत्माको समाहित दिया है। क्रियायोग आयत्त होनेसे समाधिका अनु. करके भगवान्में स्थितिरूप मोक्षप्रधान शान्ति लाभ | कूल होता है। करते हैं। "तपः स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोगः । (योगसू. २१) सव पर समान दृष्टि रखनेवाले योगी सभी भूतों आत्माको और सभी भूतोंको आत्मामे अवलोकन करते | तपस्या, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधातका नाम हैं। समस्त भूतोंमें जो मात्मा विराजित है, वे परमात्मा कियायोग है। समाहित चित्तवाले व्यक्ति समाधियोग- के सिवा और कौन हो सकते ? पातञ्जलदर्शन-प्रसङ्गों के अधिकारी हैं। विक्षिप्त चित्तवाले व्यक्ति समाधि- पहले लिखा जा चुका है, कि प्रकृति-पुरुषका जो | योगके अधिकारी नहीं है, किन्तु क्रियायोगके अधिकारी वियोग वा विवेक (पार्थक्यज्ञान ) है, उसोको योग हैं। प्रथमाधिकारी पहले क्रियायोगका अनुष्ठान करे, उस- कहते हैं। से आगे चल कर उसके सभी फ्लेश दूर होंगे तथा किन्तु पुराणादि शास्त्र-ग्रन्थों में योग शब्दका संयोग समाधियोगका अधिकार उत्पन्न होगा। अर्थ ही अनुमोदित हुआ है। याज्ञवल्क्यने कहा है, कि __ तपस्याविहीन व्यक्तिका योग सिद्ध नहीं होता। जीवात्मा और परमात्माका जो संयोग है, उसीका नाम आदि रहित चिरकाल प्रवाहमान धर्माधर्म, कर्म और पोग है। वह संयोग, प्रयत्न वा उद्योगके विना सिद्ध अविद्या आदि क्लेश संस्कार द्वारा चित्रीकृत होता है। होता है। अतएव चित्तमें रज और तमोगुणका उद्रेक ,विना "आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः तपस्याके अपनीत नहीं होता। इसलिये चित्तप्रसादन तस्या ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते ॥" तपस्या इस प्रकार करनी होगी, कि धातुचैपम्य न (विष्णुपु. ६५३१)| होने पावे। सुस्थ व्यक्तिका ही तपश्चर्या सम्भव है। अर्थात् आत्माका यत्नसापेक्ष जो असाधारण मनोवृत्ति | प्रणय आदि पवित्र सन्त्रके जप अथवा उपनिषद् आदि है, उसके भगवान्मे संयोगको हो योग कहते हैं। मोक्षप्रतिपादक शास्त्र अध्ययनको स्वाध्याय कहते हैं। गोतामें भगवान्ने योगका जैसा परिचय दिया हैपरम गुरु ईश्वरमे सभी कियाओंके अर्पण वा क्रियाके उससे मालूम होता है, कि यही मत गीताका अनुमोदित फलत्यागका नाम ईश्वर प्रणिधान है। ईश्वरप्रणिधान है। कारण, गीताने योगोको मन संयम करके चित्त शब्दसे ऐसा समझा जायगा। श्वरमें लगानेका उपदेश दिया है। "कामतोऽकामतो वापि यत् करोषि शुभाशुभ। फिर गीतामें यह भी लिखा है, कि योगके फलसे त्वत्सर्वं त्वयि संन्यस्त त्वत् मयुक्तः करोम्यहम् ॥" जो निर्वाण-परमा शान्ति लाभ की जाती है, वह मुझमें | इच्छा वा अनिच्छासे मैंने अच्छा बुरा जो कुछ किया (भगवान्मे ) रहनेका फल है। है उसे आपको अर्पण किया। मैं जो कुछ करता है, वह पहले लिखा जा चुका है, कि योगसिद्धिके लिये पत ) मापसे ही प्रेरित हो कर करता हूँ। यही क्रियाका अर्पण अलिने जिन उपायोंका उपदेश दिया है,"ईश्वर प्रणिधान* वा ईश्वरप्रणिधान है। प्रणवरूप और प्रणवार्थभावनाका उनमेसे एक है। यहो उपाय जो अद्वितीय उपाय है, पत भी दूसरा नाम ईश्वरप्रणिधान है। चित्तकी एकाप्रता अलि उसे स्वीकार नहीं करते । योगा चित्तवृत्ति और स्थैर्यसम्पादनके अनेक उपाय कहे गये हैं उनमेसे निरोधके लिये जिस प्रकार अन्यान्य उपायका अनुसरण ! ईश्वरप्रणिधान उत्कृष्ट और सुलभ उपाय है। . .