पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७३५

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७३२ योगासन प्रकारान्तर-योग साधकको चाहिए कि यत्नपूर्वक । दूसरे भागमें रख दोनों पैरोंकी वृद्ध अंगुलो दोनों हाथों- एक पादमूल द्वारा योनिदेशको पीड़ित करके दूसरा पाद-7 से पीठ हो कर ले जाय और उसे पकड़ कर जालन्धर. मूल लिङ्गके ऊपर स्थापित करे और ऊर्ध्वदृष्टि द्वारा | बन्ध कर नासाका अप्रभाग देखे। इसको भद्रासन दोनों भू ओंके मध्यभागको निरीक्षण करे। इसे भी कहते हैं। इसके करनेसे समस्त व्याधि विनष्ट होती है। सिद्धासन कहते है। यह आसन निर्जन स्थानमें निरु ४ मुक्तासन-गुदा पर वायां पैर और उसके ऊपर द्विग्न, स्थिरचित्त, अवक्रशरीर और इन्द्रियोंको संयत कर- दाहिना पैर रखें तथा मस्तक और प्रीवा समान करके के अनुष्ठित किया जाता है। इस सिद्धासनके अभ्यास अवक्र शरीर में और ठीक सीधा हो कर बैठे। इसका द्वारा शीघ्र योगसिद्धि हुआ करती है। प्राणायाम परा नाम मुक्तासन है। यह आसन सर्वसिद्धिप्रद है। यण योगीके लिए यह आसन नित्य सेवनीय है। इस | ५ वज्रासन-दोनों अघा वत्राकति कर दोनों आसनसे साधक अनायास ही परम गति प्राप्त कर | पांव गुदाके दोनों पार्यों पर संस्थापित करे । इसे वना. सकता है। सिद्धासन सब आसनोंमें श्रेष्ठ है। सन कहते है। २ पद्मासन-पद्मासन दो प्रकारका है, बद्धपद्मासन | ६ स्वस्तिकासन-दोनों जानु और ऊरुके बीच दोनों और मुक्त पद्मासन । बाम ऊरुके ऊपर दक्षिण चरण | पैर रख त्रिकोणाकृति आसन बांध करके सीधा हो कर और दक्षिण ऊरुके ऊपर वाम चरण स्थापित करके दोनों बैठे, इसे स्वस्तिकासन कहते हैं। इस आसनका हाथोंसे पृष्ठभागसे दोनों पदोंकी वृद्धांगुलियोंको दृढ़रूप-] अभ्यास फरनेसे किसी तरहकी व्याधि आक्रमण नहीं से धारण कर, और वक्षस्थल पर चिबुक रख कर नासा- कर सकती तथा सब दुःख दूर होता और शरीर सुस्थ का अग्रभाग अवलोकन करता रहे। इस तरह अव. होता है। इस आसनका दूसरा नाम सुखासन है। स्थान करनेको बद्धपद्मासन कहते हैं। इस आसनके सिंहासन-दोनों गुल्फ अण्डकोषके नीचे पर- अभ्याससे समस्त ध्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं और जउ- स्पर उल्टा कर पीछेको ओर ऊर्ध्वभागमें वहिष्कृत करे राग्निकी वृद्धि होती है। केवल वाम ऊरु पर दक्षिण | तथा दोनों जानु भूमि पर रख इस दो जानुके ऊपर मुंह चरण और दक्षिण ऊरु पर वाम चरण रख कर उस पर उठा कर स्थापनपूर्वक जालन्धरवन्ध अवलम्वन कर दोनों हाथोंको विन्यास करनेसे मुक्तपद्मासन होता है। नासाका अगला भाग देखे। इसका नाम मिहासन अन्य प्रकार-वाम ऊरु पर दक्षिणपाद और वाम है। इस आसनका अभ्यास करनेसे सभी रोग जाता हस्त तथा दक्षिण ऊरु पर वामपद और दक्षिण हस्त रहता है। चित करके रखो, और नासाके अग्रभाग पर दष्टि रख कर ८गोमुखासन-दोनों पांव पृथ्वी पर रखपीठके दन्तमूलमें जिह्वा रखे तथा चिबुक और वक्षस्थल ऊंचा | दोनों पावों में निवेशित कर स्थिर शरीरमें गोमुखकी कर क्रमशः वायु यथाशक्ति आकर्षण करके उदर में पूरण | तरह अवको ओर मुंह करके बैठे। इसका नाम और धारण करे और पीछे यथासाध्य अविरोधमें रेचन | गोमुखासन है। करना होगा। यह आसन सर्वध्याधिनाशक है। केवल वीरासन-एक पैर एक रान पर और दूसरा 'बुद्धिमान योगी हो इस आसनका अभ्यास करने में समर्थ | पैर पीछेकी ओर रखना होगा। इसे वीरासन कहते हैं। हैं। इसके अनुष्ठानमें उसी समय प्राणवायु समानरूप- १० धनुरासन-भूमि पर दोनों पांव दण्डकी तरह से नाड़ी चलती है। इसलिये प्राणायामके समय वायु- समान कर फैलावे और दोनों हाथसे पाठ हा कर यह को गति सरल हो जाती है। जो योगी पद्मासनस्थ | दोनों पैर पकड़ कर समस्त शरीरको धनुषकी तरह टेढ़ा हो यथाविधानसे प्राण और अपानवायुका पूरण रेचन करना होगा। इस तरह धनुरासन होता है। आदि करने हैं वे समस्त बन्धनसे विमुक्त हो जाते हैं। ११ मृत वा शवासन-शवकी तरह चित हो कर सोने. . ३ भद्रासन-अण्डकोषके नीचे दोनों गुल्फोंको से शवासन होता है। इस आसन द्वारा श्रम दूर और