पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७३८

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७३! योगिन् प्रलोभनकाल है। इस अवस्थामें मन स्थिर नहीं रहती, ! यामादि योगाङ्ग समुदायको यथायथ प्रणाली निवद्ध केवल सिद्धिका अंकुर दिखाई पड़ता है। इस समय | हुई है। सहजानन्द चिन्तामणि स्वात्माराम योगीन्द्रको हउप्रदीपिकामें योगि गेंके चार उपदेश दिये गये हैं। प्रथम इन्द्रादि देवगण योगीकी वित्तशुद्धि जान कर स्वर्गादि-1 स्थानको विविध उपभोग्य विषय द्वारा उनको प्रलोभन | उपदेशमें प्रधान प्रधान हठयोगियों के नाम ; योगसाधनके 'दिखाते हैं। पीछे योगसिद्धिके प्रभावसे योगिगण | अनुकूल और प्रतिकूल क्रियासमूहका विवरण ; यम, देवताओंकी अधिकारच्युति घटाते हैं, इस भयसे देवगण नियम, आसन, प्राणायामादि योगाङ्ग योगाधिकारके उनके पास आ कर कहते हैं, 'आप इस जगह अवस्थित लक्षण और योगियोंका भोजन नियम ; द्वितीयमें धौति, और विहार करें। यह भोग कमनीय है। यह कन्या वस्ती आदि पट्कर्म और कई प्रकार के कुम्भकके लक्षण ; चित्तहारिणी है। यह औषध जन्ममृत्युका विनाशक | तृतीयमें दश प्रकारका मुद्रासाधन-विवरण तथा चतुर्थ- है। यह रथ गगनचारी है। यह कल्पवृक्ष आपका उपदेशमें समाधिका विषय और नानारूप सिद्धावस्थाका सव मनोरथ पूरण करेगा इत्यादि नाना प्रकारके प्रलो- वृत्तान्त लिपिवद्ध है। भनसे मुग्ध करनेको चेष्टामें रहते हैं।" ____ अनि और अनुसूयाके पुन दत्तात्रेय ऋषि भगवानक योगी यदि इस पर लुभा नाते हैं, तो योगभ्रष्ट हो | षष्ठ अवतार और परमयोगी कह कर वर्णित हुए हैं। कर अन्तमें निरयगामी हो जाते हैं। जब तक असंप्रज्ञात उन्होंने योगधर्म प्रकाश करके भगवद्भक्त प्रह्लाद समाधि लाभ नहीं हो, तब तक योगीको चाहिये, कि वे आदि साधकोंको उपदेश दिया था। (भागवत ११३) - योगपथ परित्याग न करें। जितनी ही विभीपिका या मार्कण्डेयपुराण में लिखा है, कि वे इच्छापूर्वक लोक सम्पद्लाम क्यों न हो, किसी हालतसे भौंह न बढ़ा कर संसर्ग परित्याग कर बहुत दिनों तक सरोवरमें निमग्न धीरे धीरे गुरुके उपदेशानुसार योग करते रहें. किसो थे। उनकी प्रतिपादित संहितामे मन्त्रयोगका निकृष्टत्व कारणवश योगत्याग न करें। सूचित हुआ है तथा लययोगके सूचनाप्रसङ्गमें नासान- वर्तमानकालमें योगिगण शैवसम्प्रदायके अन्तभुक्त! भागमें दृष्टि, भूतलमें शयन, मृत्युञ्जयध्यान आदिका अङ्ग हो गये हैं। आधुनिक कणफट आदि योगि-सम्प्रदायको और प्रणालोकमसे अष्टाङ्ग हठयोगका सविस्तार विव- उत्पत्ति बहुत प्राचीन न होने पर भी प्राचीनतम कोलसे रण वर्णित हुआ है। महर्षि दत्तात्रेयके मतसे,- भारतवर्ष में योगियोंका प्रभाव विस्तृत हुआ था। दत्ता "यमन नियमश्चैव आसनश्च ततः परम् । त्रेय, भारद, यहां तक कि देवादिदेव महादेव भी परमयोगी प्राणायामश्चतुर्थः स्यात् प्रत्याहार पञ्चमः ॥ कह कर उक्त हुए हैं। षष्ठी तु धारणा प्रोक्ता ध्यानं सप्तममुच्यते। . हठप्रदीपिका, दत्तात्रेयसंहिता. गोरक्षसंहिसा आदि समाधिरष्टमः प्रोक्तः सर्व पुययफलप्रदः ॥" ग्रन्थोंमें योगिसम्प्रदायका अनुष्ठेय आसन-प्राणा गोरक्षसंहिताकार गुरु गोरक्षनाथ अपने ग्रन्थमें हउपदीपिका और दत्तात्रेयस हिताकी योगप्रकरण-

  • "तत्र मघुमती भूमि साक्षात्कुर्वतो ब्राह्मणस्य स्थायिनो पद्धतिका अनुसरण करने पर भी यम और नियमके

‘देवाः सत्त्वशुद्धिमनुपश्यन्तः स्यानरुपनिमन्त्रयन्ते, भो इहास्याता, अलावा पड़,योगाङ्गका निर्देश कर गये हैं। इसके इहरम्यतां कमनीयोsरं भोगः, कमनीयेयं कन्या, रसायनमिदं अलावा उस ग्रन्थमें पटचक्र साधनका विशेष विवरण जरामृत्यु वाधते, हायसमिदं यानं, अमी कल्पद्रुमः, पुपया उल्लिखित है। मन्दाकिनी, सिद्धा महर्पयः, उत्तमा अनुकमा अपसरसः, दिव्ये अहिंसा आदि इस प्रकारकं यमनियम का श्रोत्रचक्षुषी, वज़ोपमः कायः स्वगुणः सर्वमिदमुपार्जितमायुष्मता, पालन करनेके सिवा योगियोंका भोजन विषयमें और प्रतिपद्यतामिदमयमजयमक्षरस्थानं देवानां प्रियमिति" "अहिंसासत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य कृपार्जवम् । (योगभाष्य २५१) |. क्षमाधृतिमिताहारः शौचं चेति यमा दश ॥