पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७३९

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योगिन् भी नाना प्रकारके कठोर नियोका पालन करना होता। प्रकार सुवासित घरमें बैठ योगाभ्यासमें निरत रहेंगे। है। केवल परिमिताहार ही योगियोंके लिये प्रशस्त योगासन पर बैठनेका जो सव कौशल है योगी उसे . नहीं है। अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, उष्णद्रष्य, हरीतशाक, आसन कहते हैं। कुल मिला कर प्रायः ८४ प्रकारके बदरोफल, तैल, तिल, सर्षप, मत्स्य, मद्य, धफरेका मांस. | आसनका उल्लेख देखा जाता है । संहिताके मतसे पाग. दधि, तक, कुलत्थ कलाय, वराहमांस, पिन्याक, हिगुः साधनके लिये जो सव आसनं विहित हुएं है उसमेंसे और लशुन आदि द्रश्य योगियोंके अभक्षा है। पन्नासन सर्वश्रेष्ठ है, किन्तु हठप्रदीपिका सिद्धासनकी गेहू, शालिधान्य, जौ, यष्टिकधान्यरूप सुदारुअन्न, क्षीर, | ही प्रधानता कीर्तित देखी जाती है। • अखण्ड नवनीत, चीनी, मधु, शुठी, कपोलफल, पंच गोरक्षसंहितामें पद्मासनका अनुष्ठान-विषय इस शाक, मूग आदि और उत्तम जल आदि सामग्री संय- प्रकार लिखा है,- 'मियोंकी सुपथ्य कही गई है। "वामोलपरि दक्षिण हिचरया संस्थाप्य वाम तथा- विन्दुधारण करनेसे योगियोंकी योगाङ्गसिद्धि | प्यन्योरूपरि तस्य बन्धनविधौ धृत्वा कराभ्यां दृढ़म् । हो जाती है। अतएव विन्दुक्षयजनित आयुका नाश और अंगुष्ठ हृदये निघाय चिबुकं नासाग्रमालोकये- वलको हानि प्रतिविधानके लिये योगियों को सब प्रकारसे देतद्व्याधिविनाशकारि यमिनिः पद्मासनं प्रोच्यते ॥" स्त्रीसंसर्ग परित्याग करना उचित है। इसके अलावा । (गोरक्षसंहिता) और भी विधान है, कि हठयोगी लोग उपद्रवशून्ग निर्जन इस प्रकार आसनवद्ध हो कर प्राणायाम करना स्थानमें अवस्थित रह कर योगमठ में प्रवेश कर योगा- ; होता है अर्थात् नासिका द्वारा शरीरके वोच वायु पूरण भ्यास करें। किस जगह कैसा मठ बनाना होता है। ' और धारण करके पोछे रेचन और पूरण अभ्यास करे। हउप्रदीपिकामें उसका विवरण यों लिखा है, प्रथम अभ्यासके समय जल और दूध पीना ही प्रशस्त है, "स्वल्पद्वारमरन्ध्रगर्त्तपिटकं नात्त्युच्चनीचायतम् । | किन्तु उत्तमरूपसे अभ्यस्त होनेके वाद् और इस नियम- सम्यग् गोमयसान्द्रलिप्तममलं निःशेषवाधोझितम् ॥ का पालन करना नहीं होता। ... वाह्य मण्डपकूपवेदिरचितं प्राकारसंवेष्टितम् । शरोरके मध्य वायुको स्तम्भन अर्थात् निश्वास अव. प्रोक्त योगमठस्य लक्ष्मणमिदं सिद्ध हठाभ्यासिभिः ॥" | रोध करनेको कुम्भक कहते हैं । कुम्भकके समय इन्द्रिय (हठप्रदीपिका)। सबकी अपनी अपनी पत्तिसे निरोधका नाम प्रत्याहार अर्थात् योगमठ क्षुद्रद्वारविशिष्ट, रन्ध्रहीन, गर्नयुक्त, है। शीत्कार, भ्रमरी आदि नाना प्रकारके कुम्भकोका न उच्च वा न निम्न, गोमय द्वारा सम्यगरूपसे लिप्त, उल्लेख देखा जाता है । हठप्रदीपिकाके रचयिताने लिखा परिष्कृत और योगका. विध्नदायक द्रव्यपरिशून्य होना है, कि योगी लोग अभ्यासके वलसे रेवन और पूरण न चाहिये। उसके बाहर मण्डप कूप और वेदिरचित होगा करने पर भी कुम्भकसाधन करने में समर्थ होते हैं। कमा. तथा समग्र स्थान प्राचीर परिवेष्टित होगा। आलस्य | गत अभ्यासके वलसे विशिष्ट शक्तिसम्पन्न हो कर वे छोड़ कर प्रतिदिन सम्माजनोके द्वारा मठ परिष्कृत तथा| पद्मासन पर बैठ क्रमशः भूमि परित्यागपूर्वक शून्यमें धूप, धूना, गुगुल और अन्यान्य सुगन्धि द्वारा मठ सुवा । अवस्थान कर सकते हैं। इस समय उनकी विचित्र सित रखना योगियोंका एकान्त कर्तव्य है। वे इस शक्ति लाभ होती है। थोड़ा या बहुत भोजन करनेसे भो वे पीड़ित नहीं होते। प्राणायाम सिद्ध होने पर शरीर- तपः सन्तोष आस्तिक्यं दानं देवस्य पूजनम् । की लघुता और दीप्ति तथा जठराग्निकी वृद्धि और देह- सिद्धान्तश्रवणश्चैव हीमतिश्च जपो हुतम। को कृशता समुपस्थित होती है।

दशैते नियमाः प्रोक्ता योगशास्त्रविशारदः।" ____ यदि इस तरह शरीर शुद्ध न हो कर श्लेष्मादि.धति (हठप्रदीपिका १ उप०)। पीड़ा होती है, तो योगी धौति, नेती आदि बहुत कारवाई