पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७४०

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योगिन् ७.७ . करते हैं। हठप्रदीपिकामें लिखा है, कि १५ हाथ लंबा 1. धारणका नाम पृथिवी-धारणा है। नाभिस्थलमें रक्षित और ४ अंगुली चौड़ा एक खण्ड जलसिक्त . होनेसे आम्भसो, नाभिके अर्ध्वमण्डलमें आग्नेयो, वस्त्र गुरुपदिष्ट एथ द्वारा क्रमशः ग्रास कर पीछे उसे हृदयमें वायवी तथा भौंहोंके मध्यसे ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त निगल जावे । इसको वस्तिकर्म या धौतीकम कहते हैं। मस्तकके सभी स्थानोंमें वायुधारणको नभोधारणा ___ इससे कास, श्वास, प्लोहा, कुष्ठ, कक्षरोग आदि वीस कहते है। योगियोंका विश्वास है, कि पृथ्वीको धारणा तरहको व्याधि शान्त होती है। इस प्रकार नासारन्ध्रमें करनेसे पृथ्वी पर मृत्यु नहीं होती । आम्मसीको धारणा सूता दिलदा कर मुख द्वारा निर्गत करणका नाम नेती- करनेसे जलमें मृत्यु नहीं होती, आग्नेयीको धारणा कर्म है। दोनों नेत्र स्थिर कर जब तक आंसू न चले करनेसे अग्निमें शरीर दग्ध नहीं होता, वायवीको धारणा तब तक किसी सूक्ष्म लक्ष्यके प्रति दृष्टि रखनेका नाम | करनेसे किसी तरहका भय नहीं रहता. तथा नभोधारणा नाटककर्म है। शरीरके भीतर जलपूरण, वायुपूरण | करनेसे मृत्यु होती ही नहीं है । इस कारण गोरक्षनाथने तथा दोनोंका वहिनिगमन आदि शोधक व्यापार अनु- वायुस्थिर रखनेके लिये योगियोंको पुनः पुनः सावधान प्ठानका भी आदेश है। इन सब कर्मोके अनुष्ठानके होनेके लिये आदेश दिया है। सिवा योगी लोग कई प्रकारका अंगभंगो अभ्यास करते योगशास्त्रमें सगुण अर्थात् साकार देवताका तथा है। यह मुद्रा कहलाता है । कपालविवरके भीतर जिह्वा- । निर्गुण अर्थात् निराकार ब्रह्मका ध्यान करनेकी विधि को विपरोतभावमें प्रविष्ट और वद्ध कर भौंहोंके बीच । है। योगिगण सगुण उपासना द्वारा अणिमादि ऐश्वर्य दृष्टि संन्यस्त करनेका नाम खेचरीमुद्रा है। यह योग- लाभ करते तथा निर्गुण ध्यान द्वारा समाधियुक्त हो साधनकालमें वायुरोधका बड़ा ही उपयोगी है। । कर इच्छानुरूप शक्ति प्राप्त करते हैं। इनका विश्वास है, .. मुद्रा देखो। , कि समाधि सिद्ध होने के बाद मानव इच्छानुसार देहत्याग कभी कभी योगी लोग दोनों पैर ऊर्ध्वको ओर तथा या देहको रक्षा कर सुखका सम्भोग करते हैं। दत्तात्रेय- मस्तक अधोभागमे रख कर व्यायामकुशलीकी तरह अव.] संहितामें लिखा है,- स्थान करते हैं। इस प्रकार अंगभंगोका थोड़े समय "सर्व लोकेषु विचरेदणिमादिगुणान्वितः । से बहुत समय तक अभ्यास करना होता है। इस कदाचित् स्वेच्छया देवो भूत्वा स्वर्गेऽपि सञ्चरेत् ॥ . तरह अनुष्ठान करनेसे केशकी शुक्लता और मांसकुञ्च- मनुष्यो वापि यतो वा स्वेच्छयापि क्षणाद्भवेत् । . नादिरूप सभी वार्धक्यचिह्न छः महीनेके भीतर अपहत सिंहव्या-गजो वापि स्वादिच्छातोऽन्यजन्मतः ॥" हो जाते हैं। प्रतिदिन एक प्रहर तक अभ्यास करनेसे. अर्थात् सोधक योगी यद्यपि देहत्याग करनेकी वाञ्छा . मृत्युजयी होता है। | करते है, तो वे अवलीलाक्रमसे परब्रह्ममें लीन हो सकते 'पट्चक्रभेद योगियोंका एक प्रधान साधन तथा हंस हैं। नहीं तो अणिमादि ऐश्वयंवलसे देवादि विभिन्न मन्त्रजप अत्यन्त महत् व्यापार है। निश्वास प्रश्वासके ' माकप धारण कर सर्वलोकमें अशेषविध सुखसम्भोग समय.'हं' शब्दसे वायु वाहर निकलती तथा 'स' से | कर विचरण करनेमें समर्थ होते हैं। शरीरमें पुनः प्रवेश करती है। दिन और रातमें जीव योगशब्दमें योगीका कर्तव्याकर्तव्य अवधारित होनेसे . २१६००,वार यह मन्त्र जपते हैं। यह अजपा नाम गायत्रो तथा यमनियमादि अष्टाङ्ग, मुद्रा, षट्चक्रभेद आदि मानु- योगियोंकी प्रधान मोक्षदायिका है। ष्टिक कार्यविवरण यथास्थानमे विवृत रहनेसे यहां शरीरके भीतर स्थानविशेषमें वायुधारणका नाम विशदरूप लिखा नहीं गया। धारणा है। पृथ्वी, आम्मसी, आग्नेयी, वायवो और ' .. नभोधारणाके भेदसे यह पांच प्रकार है। -पायुदेशके वलको कथा अंगरेज-राजपुरुषों के मुखसे भी सुनते हैं। वर्तमान समयमे हम लोग कई योगी पुरुषोंके योग- . .अर्ध्वमें तथा.नाभिके अधोभागमें पांच दण्ड तक वायु- मद्रास-वासी शिशाल नामक एक दक्षिणदेशीय योगी Vol. XVIII, 185