पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७५९

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७५६ योनियन्त्र-योनिरोग पोछे वाएं हाथको अनामिकाके मूलमें उसका अग्नभाग | होनेसे उसे वध्या, योनिमें सर्गदा वेदना होनेसे लगा दे तथा दाहिने हाथको मध्यमाके मूलमें वाएं का | उसे विप्लुता; योनि कर्कश, स्तब्ध तथा शूल और सूई अप्रभाग जोड़ दे। इस प्रकार जोड़नेके वाद उंगलियों- चुभने-सी वेदनायुक्त होनेसे उसे वातला कहते हैं। को भावर्तित करनेसे मध्यमें जो योनिका आकार वन | पूर्वोक्त चारों प्रकार के योनिरागमें वात वेदना होती जाता है, उसीका नाम योनिमुद्रा है। यह योनि-मुद्रा है; किन्तु वातलारोगमें यह भविक परिमाणमें दिखाई भगवती दुर्गादेवीका अत्यन्त प्रीतिकर है। देता है। योनिसे यदि जलन दे कर रक्तस्राव हो, तो दूसरा तरीका-उंगलियोंको चित फरके दोनों उसे लोहितक्षरा कहते है। प्रसंसिनो योनिरोगमें योनि अंगूठेको दोनों कनिष्ठाके मूलमें निक्षेप करे। पीछे दोनों अपने स्थानसे नीचेकी ओर लम्बित और वायुजन्य हाथको परस्पर संयुक्त करनेसे जो मुद्रा वनती है उसका उपद्रवयुक्त होती है । इस रोगमें संतान प्रसवके समय नाम योनिमुद्रा है । यह मुद्रा सभी देवताओंको प्रोति बहुत तकलीफ होती है । पुत्रघ्नी योनिरोगमें कमी दायिनी है। ( कालिकापु०६६ अ०) कभी गर्भसंचार होता है, किन्तु वायुके प्रकोपसे रक्त- तन्त्रसारमें भी इस मुद्राकी प्रणाली लिखी है। क्षय होनेके कारण वह गर्भ नष्ट हो जाता है। इन चार (मुद्रा शब्द देखो।। पित्तज योनिरागमें अतिशय दाह, पाक, ज्वर आदि योनियन्त्र (सं० पु०) कामाक्षा, गया आदि कुछ विशिष्ट पित्तजन्य सभी उपद्रव होते हैं। तीर्थ स्थानोंसें बना हुआ एक प्रकारका बहुत ही संकीर्ण । अत्यानन्दा नामक योनिरोगमें अतिरिक्त मैथुन करने- मार्ग। इसके विषय में यह प्रसिद्ध है, कि जो इस मार्ग-1 से तृप्ति नहीं होती। योनिके मध्य कफ और रक्त द्वारा से हो कर निकल जाता है उसका मोक्ष हो जाता है। मांसकन्दकी तरह ग्रन्थविशेष उत्पन्न होनेसे उसको योनिरङ्गन (सं० पु०) योनिदोषभेद । कर्णिनीरोग कहते हैं। मैथुनकालमें पुरुषके रेत:पात योनिरोग (सं० पु०) याने रोगः। उदावादि स्त्री होनेके पहले ही स्त्रीका रेतःपात हो जाता है जिससे रोग। वैद्यकग्रन्थमें इस रोगके निदान और चिकि- स्त्रोके वीजग्रहणमें असमर्थ होने वा अतिरिक्त मैथुनके त्सादिका विषय इस प्रकार लिखा है,- लिये स्त्रीको वीजग्रहणशक्ति नष्ट हानेसे अतिवरण __अनियमित आहार खाने और विहार करनेसे वातादि नामक योनिरोग उत्पन्न होता है। श्लेष्मला पोनि. दुष्ट हो कर शुक्र और शोणितको दूपित कर देता है। रोगसे योनि पिच्छिल, कण्डूयुक्त और शीतल मालूम उस दूषित शुक शोणितसे अथवा दैववशतः योनिमें होती है। अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं। । आवशून्य अल्पस्तन स्त्रोके मैथुनकालमें खरस्पर्श योनिरोगका नाम-वायु दूषित हो कर उदावा, मालूम होनेसे उसके खण्डी नामक योनिरोग कहते हैं। वन्ध्या, विप्लुता, परिप्लुता आर चातला ये पांच प्रकार- अल्पवयस्का और सूक्ष्मद्वारविशिष्टा रमणीके स्थूललिङ्ग के योनिरोग उत्पन्न होते हैं। पित्तदोषसे लोहितक्षरा, पुरुषके साथ सहवास करनेसे उसकी योनि अण्डकोष. प्रन'सिनी, वामिनी, पुत्रघ्नी और पित्तला ये पांच प्रकार की तरह लटकने लगतो है। इसको अण्डिनी योनिरोग कफदोषसे अत्यानन्दी, फर्णिनी, आनन्दचरण अतिचरण | कहते हैं। पोनिके अतिशय छिद्रयुक्ता होनेसे विवृता और श्लेष्ला ये पांच प्रकार तथा विदोष दुष्ट होनेसे पण्डो, तथा सूक्ष्म छिद्रविशिष्टां होनेसे सूचीवक्ता रोग कहते अण्डिनी, महती, सूचीवक्ता और विदोषिणो नामक हैं। षण्डी आदि चार योनिरोग त्रिदोषसे उत्पन्न योनिरोग उपस्थित होते है। इस प्रकार योनिरोग होते हैं। अतएव इन चार योनिरोगोंमें त्रिदोषके सभी कुल मिला कर वीस प्रकारका है। लक्षण दिखाई देते हैं। ये चार योनिरोग असाध्य हैं। जिस योनिरोगमें बहुत कप्टसे फेनयुक्त आर्तव सिवा इसके अन्यान्य योनिरोग साध्य हैं अर्थात् चिकित्सा निकलता है उसका नाम उदावत है। आर्शवके नष्ट | करनेसे मारोग्य होते हैं।