पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/११७

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वाद्ययन्त्र १०५ ही ये पाच तत्रिकाएं झकारित और ध्वनित हो कर | इच्छाके अनुसार ही यांध लेता है । इन तारों पर आघात स्थरको गम्भीरता प्रकाश करती है। इस यन्त्रको करनेको कोई गावश्यकता नहीं होती, प्रधान तारमै धारणा और वादनप्रणालो. रुद्रयोणाके धारण तथा आघात करनेसे हो घे झनक उठते हैं। इसमें और एक पादन प्रणालोके समान है, सिर्फ विशेषता यह है कि विशेषता यह है, कि कच्छपो वोणा एक हो तन्नासन रुद्रयोणा दाये हाथको तर्जनीमें मछलीका चोइटा बांध, व्यवहार होता है और इसमें दो। इन दोनों तन्वासनोंमें कर एवं उसके द्वारा तांतों या तारों में आघात करके | पकका साकार दूसरेको अपेक्षा कुछ छोटा होता घजाई जाती है और इसके बजाने में बाएं हाथकी कान है। यह छोटा तरवासन प्रधान तन्लासनसे प्रायः एक प्यादि चार उंगलियां ध्यबहन होती हैं। इसके बजानेमें वालिश्त ऊपर रहता है, उसके ऊपर उक्त पीतल के अप्र. मछलीका चोइटा उंगली में बाँधने को आवश्यकता! धान तार लगे रहते हैं। तुरवहारका आकार कच्छपी. नहीं होती। यंगालमें इस यन्त्रका अधिक प्रचार नहीं। की अपेशा कुछ बड़ा होने के कारण उसका स्वर ऊंचा है। पश्चिम देशीय लोग हो अधिकतर इसका व्यय और अधिक क्षण स्थाया होता है। सुरवहारको तार हार करते हैं। मुसलमान राजाभों के राजत्वकालमें संख्या, सारिका विन्यास, धारण तथा वादन प्रणाला इसका बड़ा मादर था। कच्छपोके समान ही होती है। यह एक आधुनिक यन्त्र वरगार। हैं। जान पड़ता है, कि एक सौ वर्ष पहले यह यन्त . वरचङ्गारका खोल कदका बना होता है। इसमें नहीं था। एक कठिन पदार्थका तन्वासन तथा काठका बना एक । भरतवीणा डंडा रहता है। उस इंडे का ऊपरी भाग लोहे के एक मातयोणा बहुत हालका यन्त्र है। यह स्पष्ट है, कि पतले चरेसे मढ़ा रहता है। स्वरको गम्भीरता के लिए रुद्रयीणा औरकच्छगी वोणाके मेलते इसको उत्पत्ति हुई इस यन्त्र के ऊपरो भागों और एक कद्दू लगा रहता है। है। क्योंकि इसका खोल तो रुद्रयीणाके समान लकड़ोका इस यन्त्रको ६ खूटियों में तीन पीतलके और तीन लोहे । वना रहता है। किन्तु संडा, खूटियाँ, तारसंख्या, स्वर- के तार व्यवहत होते हैं। उन तीन पीतल के तारों में एक बन्धन, सारिकाविन्यात तथा धारण और वादन-प्रणाली •मन्द्रसप्तकके पड़ज़में, एक गान्धार, एक पंचम एवं लोहेके कच्छपी वीणाको तरह होती है। इसमें विशेषता इतनी - तीन तारों में एक मध्यसप्तकके पडत और दो पंचम स्वरमें हो है, कि इसका एकमात्र नायको तार लोहे का बना घांधे जाते हैं । इस यन्त्र में सारिकार नहीं रहनों। इसको होता है, दूसरे दूसरे प्रधान तार धातुओके वने नहीं धारण और वादनक्रिया रुद्रयीणाको धारण और वादन- होते, बलिक उनकी जगह तांत हो व्यवहत होतो । फियाकी गनुरूप होती है । यह यन्त्र और यन्त्रों की अपेक्षा तुम्बुरु वीणा। भाधुनिक जान पड़ता है। मालूम होता है, कि महती इस घोणाका खोल कह का बना होता है। इसमें फच्छपी और रुद्रयोणाके संयोगसे इस कोणाको उत्पत्ति एक काठका हंडा, चार .खूटियां और मजबूत काठका वना एक तन्नासन रहता है। इस घोणाम दो लोहे के . . मुरबहार । और दो पोतल के सिर्फ चार तार व्याहत होते हैं। इन मगर सूब गौर करके देखा जाय, तो सुरयदार और 'चारों तारों लोहे के दो तार मध्यसप्तको पञ्ज, कच्छपा वीणा वास्तव में एक दो यन्त्र है। सिर्फ गन्ता पोतलका एक मन्द्रसप्तकके पहल और एक पञ्चम खरगे रतना है, कि सुरवहारफे इंटे भीर एक लकड़ीका टुकड़ा बांधा जाता है। इस यन्त्रका डंडा दाहिने हाथको मना. लगा रहता है तथा उसमें कई एक छोरी छोटो खूटियां । मिका मोर अंगूठेसे पाड़ कर पय मध्यमांगुलोसे माघात लगी रहती हैं एवं उन सब छोटो छोटो सूटियोम देकर इसको यादनक्रिया सम्पन्न होती है। इसमें सारि- . पीतल के तार यधे रहते हैं। इन ताराको पादक अपनो | कार्य नहीं होती पवं जो तार जिस स्वरमे भाव रहता है, rol,xx1. 27