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वायुविज्ञान
कार किये हैं। इनसे घायुमण्डलोफे रहको अंचाई हो। और वैज्ञानिकों को सूक्ष्म पिके तोय प्रकाशमें मह
सकती है। . .
| सौन्दप्यमयो कविवर्णित शोमाच्छटा सम्पूर्णरूपसे
. पायकी इस नीलिमा सम्बन्धमें वैशेषिक दर्शन- विलुप्त हो जाती है।
विदोंने किसी समय अच्छी तरह गवेषणा को थी । श्रीपाद
वायुका रासायनिक सत्व ।
शङ्करमिधने वैशेषिक उपस्कार में लिखा है-
प्राच्य पण्डितोंने वायुको पञ्चभूमों के अन्तर्गत एक
- "ननु दधिधवलाकामिति कथं प्रतीतिरोतिचेन्न भूत माना है। पाश्चात्य पण्डित बहुत दिनों तक इसको
मिहिरमहसां विशदरूपाणामुपलम्मात्तथाभिमानात् ।। भूत हो मानते थे। हम आज भी घायुको भूत ही स्वीकार
कथं तर्हि नोलनम इति प्रतीतिरिति चेन्न, सुमेरोदक्षिण | करते । किन्तु यह भी यक्तथ्य है, कि हमारे शास्त्रकारों का
• दिशमाक्रम्य स्थितस्पेन्द्रनोलमयशिखरस्य प्रभामालाकता यताया भूतपदार्थ और पाश्चात्य पण्डितोंका बताया
' तथाभिमानात् । यत् सुदरं गच्छथमः परावर्त्तमान मूलपदार्थ ( Element).एफ नहीं। पाश्चात्य देशों में
स्ववक्ष कणोमिकामाकलयत्तथामिमानं जनयतोति मतं बहुत दिनों तक हमारे इस पञ्चमहाभून Element नामसे
• तदुक्तम् । पिङ्गलसारनयनामपि तथामिमानात् । इहे | पुकारा हो जाता था, किन्नु पाश्चात्य रसायन शास्त्र में
दानों रूपादिकमिति प्रत्ययात् दिक्कालयोरपि रूपाद| इस समय प्रमाणित हुया है, कि क्षिति, मप, मयत् मौर
चतुकमिनि चग्न समयायेन पृथियादोनां तलक्षण व्योम-पे मूठपंदा या "लिमेण्ट" नही हैं। जिन्तु
स्योकत्वात् । ननु सम्बग्धान्तरेगापि इहेदाना रूपारयन्त. इसने हमारे शास्त्रोय 'भूत' मामधेव संहासे परिपर्शन
व त्यांच प्रतात. सर्वधारते दिककालयो।।" को आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि पाश्चात्य पण्डित
. ५म, १म मा० द्वितीय अध्याय।। (स समय पलिमेएट में जो समझते हैं, हमारा भून शब्द
घायुको नीलिमा सम्पन्ध्रौ पैशांपक दर्शनके उप घेसे पदार्शका पाचक नहीं। इस समय के पापच त्य
स्कार में प्रश्न उठने का कारण यह है, कि वायुराशि दार्श रासायनिक पण्डितोका कहना है, कि घायु, जल, पृथ्वी
निक प्रत्यक्ष विषयोभून नहीं। किन्तु यायुका रूप मूल पदार्य नहीं, परं पे भूल पदार्थोके संयोगस तयार
खोकार कर लेने पर भर्थात् "धायुका रङ्ग नोला है" यह होते हैं। अग्नि माज भी पदार्थ नहीं है, यह रासायनिक
वात स्वीकार करने पर यह दार्शनिक प्रत्यनका विषय हो मूल पदार्थका क्रियाफविशेष है। विश्लेपणो किराको
जाता है। इसीस उपस्कार प्रन्य सिद्धान्त किया गया अति सूक्ष्म प्रणाली द्वारा जो पदार्थ किसी दूमरी जाति.
है, कि भाकाशमें जो नोलादि रूपफे अस्तित्वको प्रतीति | फे पदार्शसे किसी तरह विश्लिष्ट नहीं किया जा सकता,
होती है, वह आकाशादिका रङ्ग नहीं नियोगतः समुग वही पदार्थ इस समय मूरपदार्थके नामसे परिचित है।
यता या विकलातः किमी तरहसे हो ममा प्रभृति द्रयके | इस समय मूल पदार्थको संख्या सत्तरसे भी बढ़ गई है।
का मादि नहीं रह सकते; फिर भी जिस वर्णी उप फिर हाल के रसायनषिद्ध परिहोंने परमाणुर एवमें एक
लम्धि होतो है यह भ्रान्ति प्रतोतिमान है। शड्डरमिभने युगाला उपस्थित कर पत्तंमान रसायनयिहानफे मूल
इस भ्रान्तिको दूर करने के लिये बहुतेरो युक्तियों की अव | पदार्थ निर्णय यिभागमें महाविप्लय उपस्थित कर दिया
तारणा की है। समुद्र औरयायुराशिमें हम जो नीलिमा है। वर्तमान विज्ञान अब इस सिद्धान्तकी ओर अग्रसर
देखते हैं, यह नीलिमा यस्तुगत नहीं । यह उक्त पदार्थ हो रहा है. मिपे सब मूल पदार्थ पक ही मूल पदार्थक
में सीरकिरणके नीलवर्ण प्रतिफलनसम्भूत वर्णमात्र है। मयस्यान्तरमान हैं।
पदि यह यन्तुगत होता, तो गृहाभ्यन्तरस्थ यायुराशिको | ___जो हो, जब ता पद सिमान्त स्थापित महों होता
भौर घड़े समुजलको हम मोल वर्णका ही देखने हैं।। तब तक हमें इसो वर्तमान रसायन विहान सिद्धान्तके
माकाशको मोलिमा कधिको रक्षानारूपी मांखों में जो अनुसार हो चलना होगा। यूरोपके पेडानिक युगफे
घनीभूत सौन्दर्यका विषय प्र.पित हुमा, दार्शनिक | प्रारम्मर्स मा तक यायुफे रासायनिक तस्यक सम्परपमें
___Vol. XII. 39
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/१६९
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