पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/२७५

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. वास्तु २४१ मण्डल दो प्रकारफे हैं, एकाशीति पद और चतुःषष्टि पद । पुरुषके मेढस्थल में शन तथा जयान हृदयमें ब्रहा और इनमें एकाशीति पद वास्तुमण्डल के लिये पूर्वायत दश- चरणमें पिता वर्तमान हैं। रेला मौर उसके ऊपर उत्तरायत दश रेखा भडिन होनेसे अभी चतुःषष्टिपद वास्तुमण्डलका विषय लिखा पकाशोति कोष्ठा होगी, इस एकागीति पाद यास्तुमण्डल जाता है। चतुःपष्टिपद वास्तुमण्डल बना कर उसके में ४५ देवता रहते हैं, शिवा, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, प्रत्येक कोणमें निर्यक भावसे रेखा अङ्कित करनी होती सूर्य, सत्य, भृश गौर अन्तरीक्ष ये सब देवता ईशान-1 है। इम पायुमण्डलके मध्यस्थ चतपदमें ब्रह्मा हैं। कोणसे यथाक्रम निम्नमागमें प्रास्थित हैं। अग्नि ब्रह्माके कोणस्य देवगण अढ पद है। पहिःकोणमें कोणमें अनिल है। इसके बाद क्रमानुसार निम्नभागमें अष्ट देवता अर्द्ध पद हैं उनमें उभयपदम्य देवता साद्ध पूग, वितथ, गृहत्क्षत, यम, गन्धर्वा, भृङराज और मृग पद है। उक्त देवताओंसे जो अवशिष्ट हैं ये द्विपद हैं। अवस्थित है। मृतकोणसे लेकर यथाम पिता.! फिन्त इनकी संख्या घोस है। जहां वंशसम्पात है दौवारिक (सग्रीव), कुसुमदत्त, वरुण, असुर, शोष और अर्थात् दोनों रेखाएं मिली हैं, यह स्थान तथा समी राजयक्ष्मा तथा वायुकोणसे ले कर क्रमशः तत, अनन्त, कोठामओ के समतल मध्यस्थान इनके कर्मस्थल है। वासुकि, भल्लाद, सोम, भुनङ्ग, अदिति और दिति ये सव | प्राज्ञ व्यक्तियों को उप्ले कभी भी पीड़ित नहीं करना देवता विराजित हैं। मध्यस्थलको नयकोष्ठा में ग्रह्मा चाहिये। वह मर्मस्थान यदि अपवित्र भाण्ड, कोल, विराजमान हैं। ग्रहाके पूर्व और अर्थमा हैं। स्तम्भ वा शल्यादि द्वारा पीड़ित हो, तो गृहस्वामी के उस इसके बाद सविता, विवस्वान, इन्द्र, मित्र, राजयक्ष्मा, अङ्गमें पीड़ा अनिवार्य है। अथवा गृहस्वामी दोनो' शोष और आपवत्स नामक देवगण प्रदक्षिण क्रमसे एक हाथों से जो अङ्ग खुमलायेगे, जहां अग्निको विशति एक कोठाके अन्तर पर ब्रह्माफे चारों ओर अवस्थित है। रहेगी। वास्तुके उम स्थानमें शल्प है, ऐसा जानना माप नामक देवता ब्रह्माके ईशान कोणमें, सावित्र अग्नि- होगा। शल्य यदि दारुमय हो, तो धनका नाश होगा। कोणमें, जय नैतकोणमें तथा रुद्र वायुकोणमे विद्य- अस्थिजात शल्य निकलने पर पशुपोड़ा और रोगजन्य मान हैं। आप, पापवत्स, पर्जन्य, अग्नि और अदिति भय होता है। लोहमय होनेसे शस्त्रमय तथा कपाल धा ये सप वर्गदेवता हैं। इस पञ्चवर्गमें पांच पांच देवता केशमय होनेसे गृहपतिको मृत्यु होती है। अङ्गार रहने. विराजित हैं। ये सब देवता पशुपदिक है, अशिष्ट से स्तेयभय तथा भस्म रहनेसे सर्वदा अग्निभय हुमा वाह्य देवता द्विपदिक है, किन्तु इनकी संख्या वीस है। करता है। मर्मस्थानस्थ शल्य यदि स्वर्ण या रजतके फिर अर्यमा मादि चार देवता जो ब्रह्माके चारों ओर सिवा कोई दूसरा पदार्थ हो, तो अशुभ है। तुपमय विराजित हैं घे विपदिक है। यह वास्तु पुरुष ईशानको शल्प वास्तु पुरुषका मर्मस्थान है, अथवा चाहे कोई भी स्थानगत कयों न हो, यह अर्थागमको रोकता है। भोर मस्तक रम्यते हैं। इनके मस्तक पर निम्नमुम्नमें और तो पया, यदि हस्तिदन्तमय शल्य भो मर्मस्थानगत हो, शनल घर्तमान है। इनके मुख आप, स्तनमें अर्यमा तो वह भी दोपका माकर या खान है। और पक्षस्थलमें भागवत्स विराजित है। पर्जन्य आदि । पूर्वोक्त एकाशीति पद वास्तुमण्डलको जिस कोष्ठमें ‘समी बाह्यदेवता यथाक्रम चक्षु, कर्ण, उर: मोर अंसस्थलमें रोग' देवता पतित हुमा है उससे लेकर वायु पर्यन्त आवस्थित हैं। सत्य प्रभृति पञ्च देवता भुजाम तथा हस्तमे। पितासे हुताशन, वितधसे शोप, मुख्यसे मृश, जयन्नसे सायिन और सयिता वर्तमान हैं। वितध और वृहत्क्षत | पृङ्ग और अदितिसे सुग्रीव पन्त सूत्रदान करनेसे जो पाचों, जठरमें विवस्वान् तथा दोनों उरु, दोनों जानु त स्थान स्पर्श करेगा, यह अति मर्मस्थान है। वास्तु दोनों जड़ा और स्फिक इन सव स्थानों में क्रमानुसार गृहका परिमाण जितना हाथ है उसको कासी भाग यमादि देवता अधिष्ठित हैं । ये सय देवना दक्षिण पामि करनेसे प्रत्येक कोठा जितने हाथो होगी उसका आठयां अस्थित है । याम पार्च में भी इसी प्रकार है। चास्त माग हो मर्मस्थानको परिमाण होगा। Vol, XxI, GI