पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/२७९

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वास्तु २४५ · दान और पूजन करके दूसरे दिन सपेरै प्रदक्षिण। इसके बाद मण्डल के मध्य ईशान कोणमें आप, अग्नि- ___ करनेके बाद वृक्षच्छेदन करें। छिन्न वृक्ष यदि उत्तर वा कोणमें सावित, नेतकोणमें जय और वायुकोणमें पूर्व दिशामें गिरे तो शुभ है। इसका विपरोत होनेसे | रद, इन चार देवताओंको पूजा करनी होगी। मध्यस्थ अशुभ होता है । वृक्ष काटने पर यदि उस काटे हुए स्थान नब पदके मध्य ब्रह्माको पूजा शेष फरनेके बाद निम्नोक का वर्ण न वदले, तो यह शुभकर है तथा बही वृक्ष घर | मण्डलाकार अष्टदेवताओं को पूजा करनी होती है। बनाने के लायक है । पाटनेके याद यदि वृक्षका सार भाग पूर्वादि दिशाओंमें पकादिक्रमसे उन आठ देवताओंका ___ पीला हो जाय, तो वृक्षके ऊपर गोधा है, ऐसा जाननो | पूजन करना फर्त्तय है। अष्टदेवताके नाम--अर्यमा, होगा। उसका वर्ण मंजीठ की तरह हो जानेसे भेक, नोला सविता, विवस्वान्, विवुधाधिप. मिल, राजयक्ष्मा, पृथ्वी- होनेसे सर्प, लाल होनेसे सरट, मूगको तरह होनेसे घर और अपवत्स इन सब देवताओंका यथाक्रम प्रणवादि प्रस्तर, कपिल वर्णका होनेसे चूदा तथा वह गकी तरह नमस्कार करने के बाद पूर्व दिशामें, अग्निकोणमें, दक्षिण माभायुक्त होनेसे उसमें जल है, ऐसा जानना होगा। दिशा में नेतकोण में, पश्चिम दिशामे, चाय कोण में, उत्तर- वास्तुमवनमें प्रवेश कर धान्य, गो, गुरु, अग्नि गौर दिशामें और ईशान कोणमें पूजा करे । देवताओंके ऊपरी भाग पर नहीं सोना चाहिये, सोनेसे भाग्यलक्ष्मी प्रसन्न होता है। चंश या लकडीकी कडोके दुर्गका निर्माण करनेमें भी गृहादिके निर्माणकी तरह नीचे सोना उचित नहीं। उत्तर-शिरा, पश्चिम शिरा, एकाशीति पद यास्त मण्डल करना होगा। इसमें थोडी नान वा आचरण हो कर कभी भी सोना नहीं चाहिये। विशेषता है। वायुमण्डलके गानकोणसे ले कर गृह प्रवेशके समय गृइको तरह तरह के फूलोंसे सजाये, नैतकोण तक तथा अग्निकोणसे यायुकोण तक सन. पन्दगवार लगाये, जलपूर्ण कलस द्वारा शोभित कर रखे, पात करके दो रेखायं खींचनी होंगी। इन रेखाओंका नाम • धूप, गन्ध और वलि द्वारा देवनामों के प्रति पूजा करे तथा वंश है। पताशीति पद वास्त मण्डलके यहि गस्थ ब्राह्मणों के द्वारा मङ्गलध्वनि करावे । (पृहत्स० ५३ म०)। द्वात्रिंशत् पद के मध्य जिस पञ्चपदमें अदिति, दिति, ईश, गरुडपुराणमें वास्तुका विषय संक्षेपम इस प्रकार | पर्जन्य और जयन्त पे पञ्च देवता है, दुर्गकै एकाशोति लिखा है-गृहारम्भके पहले वास्तुमण्डलकी पूजा करनी | पद वास्तु मण्डलमें भी वहां पञ्च देवताको जगह अदिति, होती है, इससे गृहमें कोई विघ्नबाधा नहीं पहुंचती ।। हिमवान्, जयन्त, नायिका और कालिका इन पञ्चदेवको पास्तुमण्डल एकाशीति पद होगा । उस मण्डल के ईशान चिन्यस्त करना होगा। दूसरे सप्तर्षिात या सत्ताईस कोणमें वास्तु देवका मस्तक, नैतमें पादप तथा वायु पोमें गन्धये आदिसे ले कर मर्पराज पर्यन्त जो सत्ताईस और अग्निकोणमें इस्तद्वयको कल्पना करके वास्तुको देवता है उनकी जगह किसा भी देवताका नाम बदलना पूजा करे। आवासगृह, वासभवन, पुर, प्राम, वाणिज्य नहा होगा। गृह और प्रासानिर्माणमे इन बक्षीस स्थान, उपवन, दुर्ग, देवालय तथा मठके गारम्मकालमें देवतागोको पूजा करनी चाहिये। . धास्तुयाग और वास्तुपूजा मावश्यक है। यास्तुके सम्मुख मागमें देवालय, अग्निकोणमे प्रथमतः मण्डलके बहिर्भागमे बत्तीस देवताओंका भावा- हन गौर पूजन करके उसर्फ भौतरो भागमें तेरह देवताओं- पाकशाला, पूोदशामें प्रवेशनिर्गमपप और यागमएडप, ईशानकाणमें पवनयुक्त गन्धपुष्पालय, उत्तर दिशामें . को भावाहन और पूजन धारना होता उक्त यत्तोस देव- ताओं. नाम पे हैं-ईशान, पर्जन्य, जपम्त, इन्द्र, सूर्य, भाएडारागार, वायुकामें गोशाला, पश्चिम दिशामें सत्य, भृगु, भाकाश, वायु, पूषा, विनय, प्रहक्षेत्र, यम, यातायनयुक्त जलागार, नैतकोणमें समिघकुश काठादि. गन्धर्ष, भृगु, राजा, मृग, पितृगण, दौवारिक, सुमोय, पुष्प- फा गृह और भखशाला तथा दक्षिण मोर मुन्दर पन्त, गणाधिप, मसुर, शेष, पाद, रोग, अदिमुख्प, भल्लाट, / अतिथिशाला यनावे। उसमें शासन, शय्या, पादुका सोम, सर्प, मदिति और दिति । जल, अग्नि, दोप और योग्य भृत्य रखे। समस्त गृहोफे Vol. XxI. 62.