पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/३१७

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विकूज-विकृति २७५ विकून (सं० पु.) १ पेटको बोली। २ मधुमक्खीका गुन् । गान्धार, च्युत मध्यम, अच्युत मध्यम, विश्रुति मध्यम! 'गुन शम्द। कैशिक पञ्चम, विकृत धैवत, फैनिक निपाद गौर विकूजन (सं० 'क्ली० ) विशेषरूपसे कूजन, खूब जोरसे कार ली निषाद । मायाज करना। | विकृता (स. स्त्री०) एक योगिनीका नाम । विकूगन (सं० लो०) पार्श्वदृष्टि । ऐंचातान। विकृति (सं० स्रो०) विकक्तिन् । १ विकार । २ रोग। विकृनिका (सं० स्त्रो०) वि-कूण अच् साथै क, अत इत्यं ।। ३ डिम्य, अएडा । ४ मद्यादि । सायोक्त विकृति । नासिका, नाक। ___सांख्यदर्शनमे लिखा , कि मूल प्रकृति अविकृत है विंकूवर (सं० वि०) मनोरम, सुन्दर । अर्थात् रिसीका विकार नहीं है, यह स्वरूपायस्थागहों विकृत ( सं०नि०) वि-कृत । १ चीभत्स, भद्दा या कुरूप लगती है। सत्व, रज और नमोगुणको साम्यावस्थाका हो गया हो । २ रोगयुक्त, थोमार । ३ असंस्कृत, जिसका नाम दो प्रकृति है। महदादि सात है अर्थात् महत्, मह- संस्कार न हुआ हो, बिगड़ा हुआ। ४ अङ्गविहीन। कार और पञ्च तन्मान (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- ५ मधूरा, पूर्ण । ६ विद्रोही अराजक । ७ अस्वामाविक, तन्मान ) ये सात प्रकृति विकृति है। जब प्रकृति जगत् असाधारण । ८ मायायो। रूपो परिणत होती है, तब पहले प्रकृति के यही ७ धिकार • . (क्लो०) विकार। बोलने की इच्छा रहते हुए भी । होते हैं। मूल प्रकृतिस हो ये सात विकार होते हैं, इस जो लज्जा, मान और ईदियशतः न घोला जाय, पर कारण इन्हें प्रकृति विकृति कहते हैं। फिर १६ फेयल चेहरा द्वारा व्यक्त हो जाय, पण्डितोंने उसीका नाम विकृत | विकृति अर्धान् विकार , पञ्चशानेन्द्रिय, पञ्चकर्मेन्द्रिय रखा है। ' ' . और मन ये ग्यारह इन्द्रिय गौर पञ्च महाभूत पे १६ फेवल १० प्रभयादि साठ संवत्सरो से चौयोसा संघरसर विकार है, अहङ्कारसे ग्यारह इन्द्रिय मो श्वतन्मात्र भविष्यपुराण में लिखा है कि विकृत वर्षको प्रजा प्रपीड़ित पञ्च महाभूत उत्पन्न होने हैं, पे १६ प्रति विकृति गह- प्याधि और शोकयुक्त होती है तथा अधिश पाप करनेके | कार और पञ्चतन्मानसे उत्पन्न होती हैं, इस कारण इन्हें कारण उन शिर, मक्षि और वक्ष पौड़ा होती है। फेवल विकृति कहने है। पुरुष प्रकृति भी नहीं है गौर " बोलनेके समय जब लज्जाके कारण मुहसे एक भी विकृति ही है। यह प्रकृति और विकृतिसे स्वतन्त्र है। 'शब्द न निकले और मुंह विकृत हो जाय, तब यह अल सांख्यक मतसे प्रकृतिके दो तरहफे परिमाण हुमा करते हार होगा। . . हैं, स्यरूप परिमाण और विरुप परिणाम । स्वरूप परि- - ..११ दूसरे प्रजापतिका नाम । १२ पुराणानुसार | गागमे प्रलयावस्था और विरूप परिणाममें जगदयस्था परिवर्स राक्षसके पुत्र का नाम !. है। थोड़ा गौर कर देखने से मालूम होता है, कि सभी विकृतित्य (सं०सी०) विकृतस्य भावः त्य। विकृतका जागतिक तत्वोंको चार श्रेणीम विमत किया जा साता भाय या धर्म; विकार . है। कोई तत्व तो केवल प्रकृति दी है अर्थात् किमीको विकृतदंत (सं० पु०) विद्याधरविशेष । (कथासरित्सा० भी विकृति नहीं। कोई तस्य प्रकृति यिति हैं अर्थात् .१६) (त्रि०) २ विकतनायुक्त, जिसके दांत व उभयात्मक है, उसमें प्रति धर्म भी है और घितिधर्म 'बड़े और कुरूप हो। . . भी, यतएव ये प्रकृति विकृति हैं। कोई कोई तत्त्य संघल विशनदृष्टि (सं० पु.) पादृष्टि ऐचातानी। विकृति है अर्गात् किसी तत्त्वको प्रकृति नहीं है। फिर मिस्तस्यर (सं० पु०) यह स्यर को अपने नियत स्थानसे | कोई तस्य अनुमयात्मक है, प्रकृति भी नहीं है और न हर कर दूमरो श्रुतियों पर जा कर उदरता है। सङ्गीत. पिकृति ही है। पेचार श्रेणो छोड़ कर और किसी शास्त्रमे १२ विकृत स्था माने गपे हैं, यथा-ध्युत पडज, | प्रकारका तत्त्य देखने में नहीं पाता। "मच्युत यष्टज, विरुत पहन, साधारण गाग्वार, मन्तर । प्रति श्रदका भय उपादानकारण और विकृतिका