पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/४२५

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'विदुर ३५७ • चिन्तारूपी अनलमें दग्ध हो रहा है, माज मुझे जरा मी कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद पाण्डवोंने राज्य लाभ कर छत्तीस नींद नहीं भातो, अतएव मिससे भी मुझे कुछ आनन्द वर्ष तक उसका उपभोग किया । उनमेंसे पन्द्रह वर्ण मिले, ऐसे हो विषयका कथोपकथन करो।' इसके उत्तर धृतराष्ट्र के मतानुसार उनका राज्य चलता रहा। इस में सर्वार्थतत्वाशी महाप्राज्ञ विदुरने जो धर्ममूलक मोति समय भी महाप्राज्ञ विदुर धृतराष्ट्र के मन्त्री रह कर उन्हीं. गर्भ उपदेशवाफ्य कहना मारम्भ किया, उसके शेष होते के मादेशानुमार धर्म और व्यवहारविषयक कार्य देवते म होते रात होत गई। महाभारतमें यह प्रस्तावमूलक | थे। महामति घिदुरको सुनीति और सद्व्यवहारसे अध्याय 'प्रजागरपर्वाध्याय" नामसे वर्णित है। विदुरने बहुत कम खर्चमें सामग्तराजागो द्वारा जितने प्रियकार्य इस अध्यायोक्त भूरि भूरि सारंगर्भ ' उपदेश द्वारा सुसम्पन्न होते थे। उनके व्यवहारतत्त्व (मामला मुक. 'स्वार्थलोलुप धृतराष्ट्र के मनको बहुत कुछ नरम कर दिया धमा )को भालोचनाफे समय उनसे अनेक माघद्ध व्यक्ति था, किन्तु वे सम्पूर्ण कृतकार्य न हो सके थे। धृतराष्ट्र बन्धनमुक्त होते थे तथा कितने वधाई व्यक्ति भी माण- उनसे कहा, 'विदुर ! मैं तुम्हारे अशेष सद्युक्तिपूर्ण उप. दान पाते थे। शेषावस्या, मो घे.इसी प्रकार विपुल देशोंको हृदयङ्गम कर उसके माधसे अच्छी तरह अवगत कीत्तिके साथ पन्द्रह घर्ष तक धृतराष्ट्रफे मन्त्री रह कर हो गया है, परन्तु इससे होगा क्या? दुर्योधनका जव ) भाखिर उन्हों के साथ घनको चल दिये। ख्याल आता है, तम बुद्धि पलटा खा जाती है। इससे एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर धृतराष्ट्रसे मिलनेकी मैं भच्छी तरह समझता है, कि देयको अतिक्रम करना | कामनासे उनके आश्रममें गपे । उनके साथ विविध किसोका भी साध्य नहीं देय हो प्रधान है। पुरुषकार कथोपकथनके वाद धर्मराजने उनसे पूछा, "आपका, मेरी निरर्शक है। माता कुन्तीका और ज्येष्ठमाता गान्धारीका, महारमा - इसके बाद स्वयं भगवान् श्रीकृष्णके दूतः प्राइतम पितृया विदुर आदि सभी श्रद्धेय व्यक्तियों का रूपमे हस्तिनापुर आने पर दुर्योधनने उचित धर्म कर्म किस प्रकार चलता है तथा तपोऽनुष्ठानको स्वागत कर उन्हें अपने यहां निमन्त्रण किया। किन्तु उत्तरोत्तर वृद्धि होती है या नहीं?" उत्तरम अन्धराज भगवान सहमत न हुए और बोले, "दूतगण कार्य समाप्त | 'धृतराष्ट्रने कहा, "वत्स! सभी अपने अपने धर्मकर्मी फरके हो भोजन और पूजा करते है अथवा लोगों- के विपन्न होने या किसोफे प्रीतिपूर्वाक देने से ये दूसरेका पूजन किया । घरमें भौर कोई खाद्यद्रव्य न रहने के कारण उनका अन्न भोजन करते है, मेरा कार्य सिद्ध नहीं हुआ, मैं दिया हुआ केशा हो वे पड़े भानन्दसे खाने लगे। इस समय विपन्न भी नहीं और न माप मुझ प्रीतिपूर्वक देते हो है, विदर राजसभामें थे। उनको भगवान के भानेको र गते ही अतपय इस क्षेत्रमे सर्वान समदी परमधार्मिक न्यायपरा- वे घरकी भोर दौड़े। 'यण विशुद्धात्मा महामति विदुरफे सिधा और किसीके दूसरी किंवदन्तो है, कि भगवान जय विदुरके घर गये, तप यहां आतिथ्य स्वीकार करना में अच्छा नहीं समझता।" विदुर दरिद्रताशतः भन्य किसी खाद्यसा-ग्रीका संग्रह न कर इतना कह कर घे विदुरफे घर चले गये। महात्मा यिदुर सफे भौर घरमें पहलेसे रखा हुआ नो नावसका कण था उसीसे योगिजनदुर्लभ भगवान्को अपने घरमें पा कर बड़े उन्होंने भगवानका मातिथ्य सत्कार किया। भगवान भी परमभक प्रसन्न हुए। उन्होंने कार्यमनवाक्यसै सर्वोपकरण द्वारा उनकी पूजा को और अति पवित्र विविध मिटान्न तथा विदुरके दिये हुए उस कणको ला कर परम सन्तुष्ट हुए। भाज पानीय द्रष्य उन्हें प्रदान दिया। भी क्या धनी, क्या दरिद्र सभी मामन्त्रित व्यक्तिके लिये लाये गये वाद्य द्रव्यको भल्पता या अपकृष्टता दिखाते हुए कहते '* भक्तमाल मन्यमें शिखा है, कि विदुरको अनुपस्थिति हैं "महाशय ! यह मेरे विदुरके कण हैं भर्थात् यह थाप जैसे ही भगवान उनके घर पधारे थे । उनको स्त्रीने विशेषरूरते उनका सहव्यक्ति के योग्य नहीं।" Vol. XXI. 90. .