पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/४३०

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५ . विद्या "माता शत्र : पिता वैरी बानो येन न पाठितः। । शुक्र और रविवारमें मध्यम ; शनि और मङ्गलवार न शोभते समामध्ये हसमध्ये वको यया ॥" अल्पायु तथा बुध और सोमवारमें विद्याहीन होता है। (गरुड़पु० ११० भ०) | इस प्रकार शुभ दिन देख कर शानवान् गुरूंसे विद्या विद्या रूप और धन बढ़ाती है, विद्या द्वारा मनुष्यका | रम्भ करना होगा। विद्याथों यदि विद्वान् गुरुके पास प्रिय होता है, विद्या गुरुकी गुरु है, विद्या परम बन्धु है, जा कर विद्याके लिये प्रार्थना करे तो गुरुको चाहिये, विधा श्रेष्ठ देवता तथा यश और फुलकी उन्नति करने कि वे उसी समय उसको विद्या दान करें, नहीं करनेसे वाला है । चोर सभी योको चुरा सकता है, पर विद्या- उनका कार्यनाश होता है तथा अन्तमें उन्हें स्वर्गको प्राप्ति को कोई भी नहीं चुरा समाता । (गरुड़पु० ११० अ०) । नहीं होती। हितोपदेशमें लिखा है, कि विद्या विनय देती है। । भगवान् मनुने कहा है, कि उत्कृष्ट पोज जिस प्रकार अति मजयविद्यालाभ करनेसे विनीत होते हैं। विनय-1 खारी जमीनमें नहीं बोया जाता. समो TET til से पात्रत्व, पात्रत्यसे धन और धनसे धर्म तथा धर्मसे पा गर्थलाभ नहीं है अथवा तदनुरूप सेवाशुश्रूपादि सुख होता है। नहीं है, यहां विद्यादान करना उचित नही । जीवनोपाय 'विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रा । चाहे कितना ही कष्ट क्यों न होता हो, पर ब्रह्मयादी पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्ध ततः सुखम् ॥" अध्यापकको चाहिये, कि वे अधोत विद्या किसीको भी (हितोपदेश ) | दान न करे, विशेषतः अपात्र में तो उन्हें कभी विद्यापीज जीघ जिस किसो कार्यका अनुष्ठान करता है, उसका बोना ही नहीं चाहिये । विद्या ब्राह्मण के समीप जा कर उद्देश्य सुख है, जिसमें सुख नहीं है, वैसे कार्यका कोई कहती है, कि "मैं तुम्हारी निधि हूं, मेरी यत्नपूर्वक रक्षं भी अनुष्ठान नहीं करता। यह सुख एकमात्र विद्या करना, अश्रद्धादि दोप दूषित अपात्रके हाथ कदापि मुझे द्वारा हो प्राप्त होता है। अतएव सवोंको उचित है, कि अर्पण न करना। ऐसा करनेसे ही मैं अत्यन्त वीर्यवान् वे बड़े यत्नपूर्वक विद्याभ्यास करें। विशुद्ध चित्तसे रहूंगी। जिसको सर्वदा शचि, जितेन्द्रिय' और ब्रह्मचारी अनन्यकर्मा हो गुरुके समाप विद्याभ्यास करना होता | जानोगे, विद्यारूप निधि उसीको अर्पण करना।" . विद्यादाता गुरु अतिशय माननीय होते हैं, जो शिष्य- ___धमशास्त्र में लिखा है, कि वालककी उमर जब पांच | को एक अक्षरको भी शिक्षा देते हैं पृथिवी पर ऐसा द्रव्य वर्षकी होवे उसी समयसे उसको विद्यारम्भ करा दे। नहीं जिससे वह ऋण परिशोध किया जाये। ज्योतिपोक्त शुभ दिन देख कर विद्यारम्भ करना होता| पहले शास्त्रानुसार विद्यारम्भ करके विद्याशिक्षा है। हरिशयन भिन्न काल में, पष्ठो, प्रतिपद, अटमी, करनी चाहिये। रिका, पूर्णिमा और अमावास्या तिथि, शनि और मङ्गल हिन्दूशास्त्रमें विद्यारम्भकी व्यवस्था इस प्रकार है- यारको छोड़ कर उत्तम दिनमें विद्यारम्भ करे । बालकके विद्यारम्भके पूर्व दिन गुरुको चाहिये, किथे ज्योतिपमें लिखा है, कि पुष्या, अश्विना, हस्ता, स्वाती, यथाविधान संयत हो कर रहे। दूसरे दिन सपेरे गुरु पुनर्घसु, अपणा, धनिष्ठा, शतभिषा, आर्द्रा, मूला, अश्लेषा, और शिष्य दोनों स्नान करके नव वस्त्र पहने। गुरु कृत्तिका, भरणो, मघा, विशाखा, पूर्वफल्गुनी, पूर्वापाढ़ा, प्रातः कृत्यादि करने के बाद पवित्र स्थान पर पूर्वको पूर्वभाद्रपद, चित्रा, रेवती और मृगशिरा नक्षत्रमें, उत्तरा ओर मुंह करके बैठे. पोछे आचमन करके स्वस्तिवाचन यणमें, शुक्र, वृहस्पति और रविवारको काल शुद्धिमें लग्न करें। इसके बाद तिल, तुलसी, हरीतकी ले कर का केन्द्र, पञ्चम और नयम शुभग्रहयुक्त होने पर मना | सङ्कल्प करें। सङ्कल्प हो जाने पर शालग्राम शिला या ध्याय भिन्न दिनमें पांच वर्षकै बालकको विद्यारम्भ घटस्थापनादि करके शासनशुद्धि, जलशुद्धि और सामा करना चाहिये। विद्यारम्भ गृहस्पतिवारमें श्रेष्ठ तथा /, 'न्यार्य करना होगा। पोछे गणेश, शिवादिपञ्चदेवता,