पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/४४०

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विद्यानगर राजगद्दी पर बैठे। रामदेवरायने १२४६से ले कर १२७१ , भुवनेश्वरीदेयोके मन्दिरमें घोर तपस्याम लग गये। लेकिन, १० तक राजत्य किया। इसके बाद उनके पुत्र प्रताप देवोने उनको मनकामना पूरी न कर स्वप्न में उन्हें आदेश :: १२७१ ई०से १२६७ ई० तक विजयनगरके सिंहासन पर किया-"तुम्हारी कामना इस जन्ममें पूरी न होगी, . प्रतिष्ठित रहे। १२६७ ई० में प्रताप रायकी मृत्यु हुई। दूसरे जन्ममें तुम धनलाभ फरोगे।" स्वप्नमें देयोका यह सदनन्तर उसी वर्ष उनके पुत्र जम्यूकेश्या रायने राजपद | आदेश पा माधव उसी समय हाम्पोनगर परित्याग कर पर प्रतिष्ठित हो १३३४ ई० तक राज्य किया। जम्यूके शृङ्गरी मठ पहुंचे और वहां उन्होंनेसंन्यास लिया। श्वरके कोई पुत्र न था। इनकी मृत्यु के बाद सारे देश | अन्तमें ये इस मठमें जगद्गुरु विकारण्य नामसे प्रसिद्ध आ ता मल गई। उस समय माधवाचार्य विदयारण्य हुए। माधवाचार्य विद्यारण्य चेदभाष्यकार सायणके . नेटरी मठसे विजयनगर लौट कर यहां अपने नामा- भाई तथा स्वयं सर्वशास्त्रमें मुपण्डित थे। सविस्तर विवरण विद्यारयय सामो शब्दमें देखो। नुसार विद्यानगरको प्रतिष्ठा को। रायवशायलीसे यह जो हो, माधयाचार्यने जब सुना, कि बिजयनगरके . विवरण लिया गया है। मानगुण्डीके वर्तमान राजाके राजा जम्बूकेश्वरके मरने पर समूचे देशमें भीषण बराज : पास आज फल भी यह वशावली मिलती है। कता उपस्थित हुई है, मुसलमान लोग दाक्षिणात्यमें अपन । विद्यानगर। प्रभाव फैलाने लिपे प्रस्तुत हो रहे हैं तथा सनातन । जा हो, हमलोग ११५० ई०से विजयनगरका इति. हिन्दधर्मको यथेष्ट ग्लानि हो रही हैं, तव माधय शृङ्गरी हास स्पष्टरूपले देव पाने हैं। किन्तु बहुत थोड़े दिनों मठके निभृत साधनपीउका परित्याग करके कक्षभए प्रहकी . में ही अन प्रकारकी शाम यसठासे विजयनगरकी तरह तीव्र गतिसं विश्टङलापूर्ण विषय घ्यापारमय विजय अयथा शोवनीय हो गई थी । १३३६ ई में विजय. नगरक भग्नावशप के ऊपर माधवाचार्य विद्यारण्यने नगरको मोर दौड़े। जिस सर्वमङ्गला भुवनेश्वरी देवीके पादमूलसे सब दिनों के लिये यिदाय'ले पार माधवाचार्य 'विद्यानगर वसाया। किस प्रकार उनके द्वारा विद्या नगर स्थापित हुभा, यह कहानी बड़ी विचित्र है। सुदूर शृङ्गेरीमठ पहुंचे थे, घे सबसे पहले भामिन नगर में उसी भुवनेश्वरीफे मन्दिरमें आ कर प्रणत हो पड़े । ' विजयनगरके शेष शासनकर्ता जम्बूफेश्वर राय । देशको रक्षाके लिये सर्वत्यागो संन्यासोने अपनी मोक्ष- १३३५ ई० में परलोक सिधारे। इनके कोई वंशधर न साधना त्याग करके माताके चरणों में आत्मसमर्पण थे, जम्बूकेश्वरको मृत्यु के बाद विजयनगरका राजसिंहा. किया। कितने दएड तथा प्रहर बीत गये, श्रीविद्यारण्यने सन नृपतिशून्य हो गया जिससे बहुत जल्द ही चारों देवीके चरणसे अपना सिर न हटाया । अन्तमें दयामयीने 'गोर घोर अराजकता फैल गई। समूचे देशमें नशान्ति- साक्षात् हो कर कहा, "अब तुम्हारो वासना पूरी होगी। की भाग धधक उठी। तुम जय माधवाचार्य थे, तब तुम्हें धन प्राप्तिका घर नहीं - इस समय दयामय श्रीभगवान्ने दाक्षिणात्यमें हिन्दू राजत्यका मूल सुदृढ़ करने के लिये हिन्दूराज्य विस्तार- दिया लेकिन अब तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ है-तुम मन श्रीविद्यारण्य स्वामी सर्वत्यागो संन्यासी हुए, अब तुम्हारे का एक अभिनय अद्भुत उपाय रचा। अम्यूकेश्वरको इस अभिनव जीवनमें यह प्रार्शना पूरी हुई। तुम्हारे मृत्युफे बाद एक वर्ष धोतते न बीतते १३३६ ई० में माधवाचार्य ने विजयनगरफे सिंहासन पर यादवसन्तति द्वारा अव विजयनगर क्रमशः श्रीसम्पन्न होगा।" दिया. रण्य स्वामीने शिर उठाया, इसी दिन से उन्होंने विशाल नामक एक नया राजबंश प्रांत ठत किया । इस वंशकं विजयनगरका भार अपने कंधे पर लिया और साम्राज्य. भादिपुरुष युफराय थे। यहां माधवाचार्यका थोडा विध. की भलाई के लिये निष्कामभावले जीवन समर्पण किया। रण उल्लेख करना आवश्यक है। । १३३६ ई० में इस सर्वात्यागो संन्यासीके पवित्रतम नाम

माधवाचार्य परम पण्डित ब्राह्मण थे, किन्तु दारिमा से ही ध्वंसावशेष विजयनगरमै थातीय समृद्धिशाली ..

शासे निप्पिट हो कर ये धन पाने के लिये हाम्पी नगरमें । विद्यानगर प्रतिष्ठित हुमा।।.