पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/४५

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वाटी कोई दोष नहीं, किन्तु जिस मएडा प्रासादका निर्माण ढालयो होनेसे धन हानि और दक्षिणमें नोची भूमि रहने- करना हो, उस स्थानको खोदनेसे जब ताजल न निकल | से मृत्यु होतो है, अतएव दक्षिण और पश्चिमको भूमि भावे तब तक शल्प देखना होगा । यदि जल बहिर्गत होने | भूल कर भी ढालयी नहीं करनी चाहिये । पर्यन्त शल्य दिनाई न दे, तब वहां प्रासाद तैयार करने मकान के पूर्व वरवृक्ष, दक्षिणमें उदुम्बर, पश्चिममें पीपल में कोई दोष नहीं है। देव अच्छी तरह गणना करके | और उत्तरमै प्लय पृक्ष रोपना चाहिये । इन चारों दिशाओं- देखेंगे कि शल्य किस स्थान पर है, गणना द्वारा स्थान में इन चार तरह पक्षोंका रोपना शुभ है । इनके अतिरिषत 'निरूपण करके नोदना आरम्म करेंगे। इस भूमिमें जम्बीर, पुग, पनस, आघ्र क, केतकी, जातो, शल्योद्धार पणाली शल्योद्धार शब्दमें देखा। | सरोज, तगरपन, मल्लिंका, नारियल, कदली और पाटला '.. गृहारम्म' करने पर गृहस्वामोके मंगमें यदि | पृक्ष लगानेसे गृहस्थोंका मङ्गल होता है। इन सब अतिशय खुजलाहट पैदा होवे, तो समझना चाहिये, वृक्षों के रोपने में दिशाका नियम नहीं है। ये सुविधानुसार हर कि इसमें शहर है। उस समय फिरसे शल्योद्धारको एक दिशाम लगाये जा सकते हैं । दाडिम, अशोक, पुन्नाग, चेष्टा करनी चाहिये। विल्य और केशर वृक्ष शुभजनक है, किन्तु इसमें रक्त "गृहारम्मेऽति करहुतिः स्मभ्यंगे यदि जायते । पुष्पका वृक्ष कदापि लगाना न चाहिये, यह यक्ष अमंगल- शल्यं त्वपनयेत्तत्र प्रासादे भवनेऽपिवा ।" कारक है। इसके अलावे क्षोरो अर्थात् जिस वृक्षसे दुध (ज्यातिस्तत्त्व) / पहता हो, वह वृक्ष, केटको क्ष और शाल्मलि पक्ष जहां हायसे नाप कर घर बनाने की प्रथा है, वहां। रोपना उचित नहीं, कारण क्षोरो वृक्ष लगानेसे पशुका के हुनोमे 'मध्यमांगुलिक अग्रभाग पर्यन्त हाथ मान लेना भय एवं शाल्मलि वृक्षसे गृहविच्छेद होनेकी सम्भावनी होता है। "याटी व्यवस्थाइम्तोप्यत्रकफोन्युपक्रम मध्य- | रहती है। माङ्गल्या प्रपन्तः।" (ज्योतिस्तत्व) __ भवनमण्डपके किस स्थानमें कौनसा वृक्ष रोपना विहित भवनके समूचे स्थानमें देवताओंका थोड़ा। घा निषिद्ध है, कौन कौन वृक्ष रहनेसे और किस किस थोड़ा अधिकार है। उसमें अट्ठाइस भाग प्रेतोंका, | घुशके निकट शिविर या किला संस्थापन करनेसे कैसा योस भाग मनुष्योंका, वारह भाग गन्धों का एवं चार | शुभाशुम होता है तथा किस दिशामें जल रहने- भाग देवताओंका स्थान निधि है। इन सब भागोंको से मंगल होता है पवं उसके द्वार, गृादिके प्रमाण और स्थिर करक.प्रेतका जो निहिट मश हो, उसमें गृदादि । लक्षणादिके सम्बन्धमें ब्रह्मपुराणमें इस तरह उल्लेख किया नहीं बनाना चाहिये। मनुष्यका जो बोस भाग निदिए गया है- हैं, उसमे घर बनाना चाहिपे, इस स्थान पर बनाये गये श्रीभगवान कहते हैं-गृहस्थों के आश्रम में नारियल- गृहादि मङ्गलदायक होते हैं । मण्डपफे कोने, अन्त में था | का वृक्ष रहनेसे मंगल होता है। यदि यह घुक्ष गृहफे दोधी घर बनाना उचित नहीं. कारण यह है कि भवन ईशानकोणमें या पूर्वको और रहे, तो पुत्र लाम होता है। जनित प्रस्तुत भूमिखएडके कोने गृहादि निर्माण करने तराज रसाल ( मान वृक्ष ) मा प्रकार से मङ्गलाई और से धनहानि, भन्तमें बनानेसे दुश्मनों का भय पवं वोचो | मनोहर होता है। यह वृक्ष पूर्व गोर रहनसे घर बनानेसे सर्वनाश हो जाता है। गृहस्थोंको सम्पत्ति लाम होतो है। इसके अतिरिक्त इसके पूर्व एवं उत्तरको भूमि क्रमशः ढालयो होनी विल्य, पनस, जम्बोर और वदरी चुक्ष घाटोके पीछेको चाहिये, इन्दा दोनों दिशामोंसे हो कर जल निकला करेगा। ओर रहनेसे पुत्रप्रद होते है एवं दक्षिणको गोर रहनेसे पे दक्षिण और पश्चिमको भूमि निम्न करना उचित नहीं। | धन प्रदान करते हैं। जम्युन, दाडिम्प, कदलो और पाटोके पूर्वको मोर क्रमशः निम्न भूमि रहनेसे वृद्धि, आघातक (आमहा) वृक्ष पूर्वको ओर रहनेसे बंधुमद होते हैं उत्तरको गोर नेसे धन लाभ, , पश्चिमको भूमि एवं दक्षिण में रहनेसे मित्रको संहश बढ़ाते हैं। गुवाक यश Vol .III. 11