पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/४६१

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विद्यापति . ३८५ विद्यापति नचेरे पितामह चएड श्वर महाराज हरिसिंह विसफो नामक प्राम दिया था। यह प्राम व मान दर. देव महामहत्ता सांधियिहिक थे। उन्होंने 'स्मृतिरस्ना मङ्गा जिलेक सीतामढ़ी महकमेके अधीन जारैल पर. कर' नामक स्मृतिनिवन्ध रचे हैं। इसके सिवा यार. ' गर्नमें कमला नदीके किनारे अवस्थित है। यहां कवि श्वरके पिता देवादित्य, पितामह धर्मादित्य और उनके । यंगधरों का आज कल यास नहीं है। ममो ये लोग चार पिता हरादित्य आदि मिथिलाका राजमम्वित्व कर गपे पीढ़ासे सौराठ नामक एक दूसरे प्राममें रहते हैं। विसपी माम देने के उपलक्ष राजा शिवसिंहने विद्यापतिको विद्यापति के प्रथम उत्साहदाता प्रनिपाल थे। जो ताम्रशासन प्रदान रिया था, उसके नष्ट हो जानेसे पर. मिबिलायोग शिवसिंह देव । माने एक मैथिलो पदमे पत्तों कालमें और भी कितने जाली ताम्रशासन बनाये गये उन्होंने गियांसंहके काल मौर गुणका इस प्रकार परिचय है। इन ताम्रगासनों में भा २६३ लक्ष्मणाम्द देखा जाता दिया है। है। बहुनरे एन्दो ताम्रशासनों को मून पतलाते हैं, पर "मनात रन्धकर समन्वय परवा सका समुह कर अंगनि सती। यह उनको भूल है। चवकारि काठ नेठा मिलिमी पार येहका जाउन्नमी॥ ___शियसिहकी पत्नी रानी लछिमा ददी भी विद्यार देवसिंह अपुरमो छह मदामन मुरराम सह। पतिको बहुत उत्साह देती थीं। इसी कारण विद्या. दुहुनुगतान निदे या सोभउ तपनहीन जग मरू॥ पनि मनक पदरों में लोडमा देखाका नाम पाया जाता देखो पृथिमीको राजा पोरस माझ पुण्य बोलिभो। है। उनकी पदायलोसे यह भी जाना जाता है, कि ये सउसने गन्नामिलितकलेवर देवसिंह मुग्पुर चलिमो ॥ गयासुदीन और नसिरा शाह नामक दो मुसलमान एक दिस जान सकस दस चनिश्री एक दिल सों जमराम चरू।। राजाओंके मो करा-पान थे। इसके सिवा उन्होंने रानी दुहुए दक्षठि मनोरथ पूरमो गरूर दाप शिवसिह करू । विश्वासघाफे आदेगसे 'शैवसर्वस्व द्वार' और 'गङ्गा- मुस्तस्कमुम पानि दिस पुरेभो दुन्दुहि सुन्दर साद घर। यावशावली' पीछे महाराज कीर्तिसिंधफे आदेशसे 'कीर्सि वीरदा देखनको कारण मुरगप्प सोमें गगन भरु॥ लता' तथा महाराज भैयसिंहके शासनकालमें युवराज मरम्मी पन्तेहि महामस राजसूम अश्वमेघ जहा। रामभद्र (करनारायण)के उत्साहसे 'दुर्गामतितरङ्गिणो'- पयित पर माचार पखानिम याचकको घरदान कहा। को रचना की है। विद्यापतिके किसी किसी पदमें विजावई कदार एहु गावए मानव मन मानन्द भयो। उनको कविकएठहार' उपाधि देखी जाती है। सिंहासन शिवसिंह पाटौ उठवं विसरि गयो।" पूरोक्त प्रायो के अलावा विद्यापति रचित पुरुष उक पदका तात्पर्य यह है कि २६३ लक्ष्मणादम अथवा परोक्षा, दानवाफ्यावली, वर्षहत्य, विभागसार, गयापतन १३२७ एकादके चैत्रमासकी पहा तिथि ज्येष्ठानक्षत्र में आदि.मनेक संस्कृत मन्ध मिलते हैं। पृहस्पतिको देवसिंह सुरधामको सिधारे । उनके स्वर्ग: ये सब प्रथ आज मी मिथिलाम प्रचलित हैं । इनको पासी होने पर भी उनका राज्य शून्य नहीं हुआ। उनके मनोहर पदालियो मसे एक नोचे उधृत की जाती है- पुत्र शिवसिंह राजा हुए। शिवसिने अपने वाहवलसे | 'कन चतुरानन मरि मरि जावत, ननु या आदि मवसाना । मुसलमानों को तृपके समान तुच्छ ज्ञान कर परास्त तोहे जनमि पुनि नोहे समावत, सागर महरी समाना। किया यवनराज जान ले कर भाग चला । स्वर्गमे दुन्दुमि मरण पुरव दिस, यहल सगर निस, गगन मगन मेल चन्दा । बजने लगी। शिसिंह मस्तक पर पुष्पवृष्टि होने लगी!! मुनि गेत कुमुदिनी तइओ नोहर पनि, मूनल मुख अरविन्दा। विद्यापति कवि कहते हैं, कि यही गियांसह भी तुम कमर वदन कवनय दुलोचन, अधर मधुर निरमाणे। लोगेकि राजा हुए है। तमलोग निर्भय होकर दास! राकन शरीरकुसुम तुम सिरजित, किम दई हृदय परवाने । जनम अवधि हम रूप निहारव, नयन न तिरपित मेन। राजा शिवसिंहने प्रसन्न होकर इन्हें विसपो वो सेई मधुर योक्ष भवाह पनप, विषय परसि न गेला. Vol. xxI 97