पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/४९५

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विधि ४११ कर्ता गुरु, भट्ट और प्रभाकर इन तीन आचार्यो ने अपने | कारण यह अनियत है, "अङ्गविधिस्तु कालदेशक दि. "चोदनालक्षणोऽर्थोधर्मः" इस सूत्रोक शब्दके बदले में | बोधकतया अनियत एव" । कहनेका तात्पर्य यह कि अङ्ग- ' विधि शब्दका व्यवहार और निम्नलिखित प्रकारसे विधिमान ही प्रधान विधिको उपकारक अर्थात् मूलकर्म- "उसका अर्थ तथा स्थलनिर्देश किया है। चोदनाप्रवर्तक को सहायक है। जैसे अग्निहोत्र यशमें "योहिभिर्यजेत" 'वाक्य ; इसका दूसरा नाम है विधि गौर नियोग । मोहि द्वारा पाग करे, "दध्ना जुहोति" दधि द्वारा होम विधियोंके लक्षण और प्रकारभेद इस प्रकार हैं,- | करे, इत्यादि । भयान्तर क्रियायें गड्याग या अङ्गविधि ' , प्रधान विधि-"स्वतः फलहेतुक्रियायोधकः "धान- है। मङ्गविधि भी प्रधान विधिको तरह अपूर्व, नियम 'विधि:" जो विधि मापसे दो क्रिया और उसके फलका | और परिसंख्या भेदसे तीन प्रकारको है। प्रमशः उदा. बोध कराती है अर्थात् जो स्वयं फलजनक है, यहो प्रधान हरण, "शारदीय पूजायामष्टम्यामुपपसेत्" महाटमोमें उप- विधि है। जैसे, "यजेत स्वर्गकाम" स्वर्गकामी हो कर वास करे, यह दुर्गापूजाका गङ्ग होनेके कारण भङ्गविधि याग करे। अपूर्व, नियम और परिसंस्पाभेदसे प्रधान विधि है तथा यह पतदन्यशास्त्र है, अपनी इच्छा गथया न्याया- 'तोन प्रकारकी है। 'मत्यन्तामाप्ती अपूर्णविधिः' जहाँ | नुसार किसी मतसे निषिद्ध नहीं हो सकता, अतएय विधि विहित फर्ग:किसी तरह निषिद्ध नहीं होता यहां अवश्य कर्तव्यके कारण अपूर्व विधि है। "श्राद्धभुञ्जीत अपूर्णविधि जाननी होगी। जैसे "महरदः सन्धमानुपा पितृसेवितम्" श्राद्धशप भोजन करे, यहां पर श्राद्धशेष सीत" दैनन्दिन सम्ध्याकी उपासना करे, यह उक्ति शास्त्र,। भोजन के सम्बन्धमे इच्छानुसार कभी प्याघात हो सकता इच्छा और न्यायसङ्गत हैं तथा किसी भी स्थानमे इस | है, अतपय कारणवशतः एक पक्षों मप्राप्त होनेसे नियम- विधिको यतिकम नहीं देखा जाता अर्थात् यह नियत | विधि हुई। "वृद्धिथाद्ध प्रातरामन्वितान् विमान्" वृद्धि- कसंध्य है। "पक्षतोऽप्राप्तौ नियमविधि:" कारणवशतः | धादमें प्रातःकालमै विनोको मामन्त्रण करे, यह परिसंख्या. शास्त्र वा इच्छा आदिको अप्राप्ति होनेसे उसको नियम विधि है, क्योंकि यहां विहित प्रातःकालके निमन्त्रण विधि कहते हैं। जैसे, "मृती भार्यामुपेयात् ऋतु- मथया पार्वणश्राद्धकी तरह उसके पहले दिन के सायं. काल में भार्यामिगमन करे ; यहां शाखत नियत विधान | फालका निमन्त्रण इन दोनों को ही न्यायसङ्गत प्राप्ति हो रहने पर भी कदाचित् इच्छाभाववशतः पिहित कार्यको | सकती है। इस कारण प्रधान और अङ्गविधिके अन्तर्गत मप्राप्ति हो सकती है। किन्तु यह पायह नहीं है, | 'नपूर्ण, नियम और परिसंख्याविधिका लक्षण इस प्रकार क्योंकि उक्त प्रकारसे एक पक्षमें विधिका विपर्याय होता | लिखा है,- है, इसीलिये यह नियमविधि में गिना गया है। विधेय । विधिरत्यन्तमप्राप्ती नियमः पाक्षिके सति । तत्पतिपक्षयोः प्राप्त परिसंख्याविधिः" जो शास्त्रतः तथा ।" तत्र चान्यत्र च प्राप्तौ परिसंख्या विधीयते ॥" अनुरागवशतः मिलता है, यह परिसंख्या विधि है जैसे (विधिरसायन ) 'प्रोशित मांसं भुञ्जोत' प्रोक्षित (पशीय मन्त्र द्वारा संस्कृत) | किसी किसी मतसे सिद्धरूप और क्रियारूप भेदसे मांस भोजन करे, यहां पर प्रोक्षित मांस भक्षणकी प्रवृत्ति । मङ्गविधि दो भागों विभक्त हुई है। द्रष्य और संध्या 'शास्त्रतः तथा स्वमायतः मांसमें अनुरक रहने होसे हुआ| आदि सिद्धरूप हैं; मवशिष्ट मियारूप है। क्रियारूप मङ्ग करती है। . . ... । दो प्रकारका है, सग्निपत्योपकारक और आरादुपकारक । ... अङ्गविधि,-"अङ्गविधिस्तु स्वतः फलहेतु क्रियाया ! सिद्धरूप मङ्ग (द्रव्यादि)के उद्देशसे जो क्रिया को 'कपमित्याकाइक्षायां विधायक"। जिस विधि किस जाती है, यह सग्निपत्योपकारक है। "मोहोन अवन्ति" कारण क्रिया की जाती है यह जानने के लिये ऑपे आप "सोमममिपुणोति" इत्यादि याफ्यों में प्रोदि और सोम- भाकोडक्षा होती है उसको भविधि कहते हैं। यह भङ्ग । द्रश्यमें अयघात और अभिषय क्रियाका विधान है। जहां 'विधि काल, देश और कर्ताको योधकमान है। इस अङ्गविधिक न्यादिका उद्देश नहीं देखा जाठा, फिर