वसुसेन-वस्ति
वसुसेन ( स० ० ) कर्णराज।
कर्मणि धन । १छाग, बकरा। (स्त्री०) २ पस्तु देखो।
वसुसेन-एफ कवि।
घस्तक (सं० क्लो०) कृतिम लवण, बनाया हुआ नमक ।
पसुपली (सस्त्री०) वसूनां धनानां स्थलो । कुवेरकी | यस्तकर्ण (स.पु०) वस्तस्य छागस्य कर्णाकृतिः पलाव-
'पुरी, अलका।
च्छेदे अस्त्यस्येति यस्तकर्ण अर्श मादित्वादच । शाल-
वसुईस (संपु०) वसुदेवके पुत्र एक यादवका नाम ।। वृक्ष, साखूका पेड़।
पसुहह (सपु०) वसूनां दीप्तीनां हह इव । वकवृक्ष, वस्तगन्धा (स. स्त्रो०) वस्तस्य गन्ध इव गन्धो यस्याः।
भगस्तका पेड़।
वह जिसकी गंध करे-सी हो।
घसहक (सपु०) पस स्वार्षे कन्। वकवृक्ष, वस्तमोदा ( स० स्त्री० ) यस्तं छागं मोदयतीति मुद-णिच्
अच् । अजमोदा।
'अंगस्तका पेड़।
वसुहोम (संपु०).१ वह होम जो उसके उद्देशसे | यस्तथ्य ( स० लि०) वस-तव्य । वासाई, यासके योग्य ।
घस्तव्यता (सं० स्त्री०) वस्तव्यस्य भावः तल टाप् ।
दिया जाता है । २ पुराणानुसार अङ्गदेशफे एक राजाका
वस्तष्यका भाव या धर्म, यास।
नाम। .
यस्तान्त्री (स० सी०) घस्तस्पेय मन्नमस्या, गौरादि-
वसूक (सं० क्ली०) १साम्भर लघण । २ वकवृक्ष, अगस्त-
त्वात् डोप् । छागलाक्षिक्षप। पर्याय-पगन्धापया,
का पेद।
.
मेपान्ती, धूपपत्रिका, मतान्त्री, पोरकी । गुण-कटु, कास-
घसूजू (स.लि.) १धनाभिलाषी, धनको इच्छा करने.
दोषनाशक, गर्भजनक और शुक्रबर्द्धक । (राजनि० )
पाला। (पु.)२ अलिगंशीय एक सूकद्रष्टा ऋपिका | वस्ति (सं० पु० स्रो०) वसति मूत्रादिकमत, यस
नाम।
(बसेस्ति। उण_४।१७६) इति ति। १ नाभिका अधो.
यस्तम ( त्रि०) महाधनवान्, बड़ा दौलतमंद ।
भाग, पेड़ । २ मूत्राशय, पेशावको थैली।३ वस्तिसदृश
वसुमतो (स.सी.).वसुमती, पृथ्यो।
यन्त्र, पिचकारी। धैधकमें यस्तिविधिका विषय मार्थात्
यसूया (सस्रो०) धनेच्छा, धनको कामना ।
पिचकारी देनेको प्रणाली इस प्रकार लिखी है-
घस्यू (स.नि.) धनेच्छु, धनकी कामना करनेवाला।
____घस्ति दो प्रकारको होती है, अनुषासनयस्ति और
पसूल (१० वि०).१ पास पहुंचा हुआ, मिला हुआ,
'निसहयस्ति । इन दोनों प्रकारको पस्तिमि स्नेह
प्राप्त । २जो षुका लिया गया हो, जो हाथ माया हो,
द्वारा जो पस्तिप्रयोग किया जाता है, उसे अनुपासन-
लब्ध। (१०) ३ उपस देखो।
पस्ति तथा पयाध, दुग्ध और तेल द्वारा जो घस्ति प्रयोग
वसूली (R० स्त्री० ) १ धुकता करानेको क्रिया, दूसरेसे
किया जाता है, उसे निराहावस्ति कहते हैं। पस्ति
रुपया पैसा या षस्तु लेनेका काम! २ बाकी निकला
द्वारा (मृगादिके मूत्राशय द्वारा) प्रयोग . करना होता
या चाहता हुआ रुपया लेनेका काम। .
है, इस कारण इसको पस्ति कहते हैं।
परक (सपु०) यसक-माघे घम । मध्यवसाय।
. म.सास्ति अनुवासनपस्तिका भेदमात है। इसकी
घस्कय (सं० पु०) पाते इति पस्क गतो बाहुलकार
माला दोघा एक पल है। रुक्ष व्यक्ति, तीक्ष्णाग्निसम्पन्न
भयन् । एकहायण वत्स, बकेना बछड़ा।
ध्यक्ति तथा जिनके केवल वायुप्रबल है, ये अनुयासन-
घरायनी (सी०) पस्कथं एकहायणो पत्ता, सेन यस्तिके उपयुक्त हैं। कुष्ठरोगी, मेहरोगी, स्थूलकाप और
नोयते इति नी किए जो । चिरप्रसूता गाभी, फेनी गाय। उदररोगीके लिये अनुवांसनवस्ति उपकारी नहीं है।
इसके दूधका गुण निदोषनाशक, तर्पण मौर बलकर अजीर्णरोगी, उन्मादरोगी, तुष्गारोगो तथा शोध,
माना गया है। . . । .
मा, अरुचि, मय, श्यास, कास और क्षयरोगामात
पस्कराटिका (संखो०) वृश्चिका
व्यक्तिके पक्षमें अनुयासन और आस्थापन ये दोनों हो
.. पस्त (स .) क्स्य ते पचार्य पंध्यते इति यस्त' प्रकारको घस्ति प्रशस्त है।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५
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