पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५१६

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४३०. विन्ध्यगिरि अस दिनसे विन्ध्यने और फिर कभी शिर ऊंचा न ) द्वारा यथाविधि पूजा करने और कुशलप्रश्न पूछने पर किया। मुनिवरने दोघ निश्वास परित्याग कर कहा, कि पिन्थ्य ! घर मनुपूजित देवी भगवती भो विन्ध्यपर्वत पर मा| इन पर्णतोमें एक शैल सुमेरु हो एकमात्र तुम्हारी भव । विराजी। उस समयसे वे विन्ध्यवासिनी नामसे पूजित | मानना करता है। यह बड़े दुःखको वात है। और हो रही हैं । ( देवीभागवत १०३ ७ अ० ) कई तरहको बाते कर नारद वहांसे चले गये। भर यामनपुराणमें लिखा है, कि समय गाने पर इस | बिन्ध्यको सुमेरुसे बड़ी ईर्ग उत्पन्न हुई। विन्ध्यने असूया. पर्यंतने घढ कर सूर्यको गतिको रोक दिया । इससे परायण हो कर अपनो देहको ऊंचा किया और यहां तक सूर्यदेधने व्याकुल हो कर अगस्त्य ऋषिके होमावसान. ऊंचा किया, कि सुमेरुको प्रदक्षिणा सूर्या और महत. के समय जा कर उनसे कहा-हे कुम्भमव ! विन्ध्य गण न करने पाये। इस तरह सूर्याको गमनागमन गिरिके प्रभावसे मेरे स्वर्ग जानेका पथ पूर्णरूपसे बन्द है।। बन्द हो जाने पर स्वर्ग मत्य चारों ओर हाहाकार मन माप ऐसी व्यवस्था करें, जिससे मैं निर्विघ्न अपनी यात्रा | गया। देवोंके हाडे हो कर जगत्में शान्ति फैलाने का. तय कर सकू। दिवाकरफे इस विनीत वाफ्यको सुन उपाय पूछने पर ब्रह्माने कहा, कि अगस्त्य पके सिवा कर अगम्त्यने कहा-मैं आज ही विन्ध्यगिरिको नत. इसके प्रतिकार करनेकी प्रत्याशा किसीसे नहीं हैं। अत- मस्तक करूंगा। एव तुम लोग शीघ्र उन विश्वेश्वरके भविमुक्तक्षेत्रमै जा यह कह कर महर्षि दण्डकारण्यसे विन्ध्याचल चले कर उन मित्रावरुणके पुत्र महातपस्यो अगस्त्यके निकट गपे और विन्ध्यसे योले-देखो विन्ध्य ! मैं तीर्थ यात्राको | | इसके लिये प्रार्थना करो। निकला हूँ। तुम्हारी इतनो अचाईके कारण मैं दक्षिणको ब्रह्माके इस परामर्शके अनुसार इन्द्र भादि देवताओं सोर नहीं जा सकता हूँ' । अतएव तुम आज नीचेकी ओर ने काशीमें कर अगस्त्यको विन्ध्यके उत्पांतको दान अको। भूपिको इस माज्ञासे विन्धयगिरिके निम्न शृङ्ग कदी और प्रतिकारको भी प्रार्थना की। इस पर अगस्त्य होने पर अगस्त्यने पर्वत पार कर दक्षिण ओर जा फिर जीने भी तुरन्त इसके प्रतिकारके लिये विन्ध्यगिरिकों धराधरसे कहा,-विन्ध्य ! जब तक मैं तीर्थयात्रा करके | ओर प्रस्थान किया। विन्ध्यगिरिने सानल स्टूश मुनिका न आऊ तबतक तुम इसी तरह खड़े रहो । यदि त म | आना देख भयभीत होकर अपने शरीरको अघनत कर, अन्यथा करोगे, तो तुमको मैं शाप दूंगा । यह वात कह | विनम्न घचनोंमें कहा, प्रभो! आप प्रसन्न हो कर जो माह कर ऋपि वहांसे प्रध्यान कर देशके अन्तरीक्ष प्रदेशमें | देंगे, उसे पालन करने में मैं तन मन धन तत्पर है। माये और वहां अपनी सहधर्मिणो लोपामुद्राके | इस पर भगस्त्य मुनिने कहा-विन्ध्यगिरि ! तुम साधु साथ पास करने लगे। उस समय विन्ध्य मुनिकी हो, मैं जब तक लौट न आऊ, तुम इसी भाषसे खड़ रहा लौटने की आशा परित्याग कर शापभयसे वैसे हो | यह कह कर अपनी स्त्री लोपामुद्रा के साथ गोदावरी तट खड़ा रहा। देयो भी दानवदलगार्थ इस विन्ध्यगिरिक पर अगस्त्य मुनि रहने लगे। . . सर्वोच्च शृङ्ग पर अवस्थित हुई। अप्सराओंके साथ देव ____ इन सय पौराणिक विवरणों से मालूम है, कि यह सिद्ध भूत नाग और विद्याधर आदि सभीने एकत्र स्वस्ति-विन्यागिरि एकै समय घहुन ऊंचा था। इसके अच याद कर उनको महनिशि सन्तुष्ट किया और ये अपने | शिखर पर कोई चढ़ नहीं सकता था। इसीसें यह दानव भी दुःख शोकविधर्जित हो कर वहां अबस्थान करने | यक्ष किन्नरों की वासभूमिमें परिणत हुआ था। अकस्मात् लगी। (पागनपुगण १८ म०.). . . विन्यांके हदयमें ईष्र्धाको तरङ्ग लहराई; इसने अपने काशीखएडमें लिखा है, महर्षि नारद नर्मदा नदीमें | शरीरको इतना बढ़ा दिया, कि सूर्याका मार्ग भी बन्द स्नान कर कारेश्वर महादेवको पूजा कर विन्ध्य दो गया। • महसा अन्धकारसे जगत् व्याप्त हुमाँ ! समीप पहुंचे । विन्ध्यके अष्ट्रोपकरणनिर्मित अा | विन्ध्यशैलको इस तरह आकस्मिक देहयद्धि और सूर्ण