पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५२९

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विपाक . ४४५ विद्वप होता है और क्रमशः ही मेगिसंस्कारको वृद्धि सस्कारदुःख क्या है ! सुखानुमयसे एक सुख या होती रहती है। चित्तको सुख दुःख और मोहरूपी सद सुखका कारण ऐसा संस्कार होता है। इस तरह पृत्तियां भी परस्पर विरोधी है, किसी तरहसे शांति नहीं | दुम्नानुभवसे को संस्कार उत्पन्न होता है, इस तरह होती हैं। . . कर्मफल मुख् या दुःवका अनुभव होनेसे सुखसंस्कार योगीके लिये सभी दुःख ही दुःला है, यह किस तरह पैदा होता है। सस्कारसे स्मृति, स्मृतिसे राग और प्रतिपन्न किया जाये १ इसी याशंकाको निराकरण करने रागसे कायिक, पाचिक और मानसिक घटनायें होती के लिये कहा गया है, कि सभीको राग-(आसक्ति- है। उससे धर्म और अधर्मरूप कर्माशय, इस कार्माशयसे कामना)के साय चेतन और मचेतन दोनों तरहके उपाय- जाति, मायु मौर भोगरूप विपाक होता है। पुनर्धार से सुखका अनुभव होता है। यतपय यह कहना होगा, संस्कार उत्पन्न होता है। इस तरह मनादि प्रवहमाण कि कर्माशय रागजन्य ही यसमान है। सुतरां दुःखाका दुन द्वारा प्रतिकूल भावसे परिलक्षित हो कर योगियोंको कारण प और माह है और इन द्वेष और महिपो उद्वेग उत्पन्न होता है। कारण ही कर्माशय होता है। यद्यपि एक साथ हो इसी लिपे पहले कह आये है, कि मूल अर्थात् कर्मा- राग, द्वेप और माइके इन तीनोंका आविर्भाव नहीं शय रहनेसे हो जाति, भायु और भोग-ये तीन प्रकार. होता, तथागि एकके आविर्भावक समय दूसरे विच्छिन्न ! का विपाक होता है। सम्यक शान द्वारा कर्माशय हो जाते हैं। प्राणिपोड़न न कर उपभोग सम्भोग सम्भव विनष्ट होने पर फिर विपाक होगा ही नहीं । जब तक . नहों। अतएर दिसाकृत और शारीर (शरीरसम्पाय)/ कर्माशय विनष्ट न होगा तब तक जन्म, मृत्यु, मोगरूप कर्माशय, होता है। विषयसुख अविधाजन्य होता है विपाकफे हायसे रक्षा नहीं। सुप्तिषशतः भोगविषय में इन्द्रियों को प्रवृत्तिक अमायो । " जीय अविद्याभिभूत हो कर वारपार जन्मप्रहण सुख कहते हैं। चञ्चलतायशतः इन्द्रियोंको अशान्तिको दुःस कहते करता है और मृत्युमुखमें पतित होता है तथा जन्म- हैं। भोगके अभ्यास द्वारा इन्द्रियके पैतृष्ण्य अर्थात् | से मृत्यु तक सुखदुःख भोग करता रहता है। कर्माशय- विषयवैराग्य नहीं होता, पयोंकि मोगाभ्यासके साथ ही के यिनष्ट हो जाने पर इस तरहको विपाक नहीं होता। साथ अनुराग और इन्द्रियोंका कौशल बढ़ता रहता है। इसी लिये पोगी अपनेको और अन्य साधारणको अनादि 'मतपय भोगाभ्यास सुखका कारण नहीं, विच्छूक विप- दुःवनोतमें बहता देख कर सारे दुःखोंका क्षयकारण से भय खा कर सांपसे इसे जाने पर जैसे मनुष्यों को ! सम्यकदर्शन अर्थात् आत्मशानको ही रक्षक समझ कर अधिकतर दुःख अनुभव होता है, वैसे ही सुखको कामना उनका आश्रय ग्रहण करते हैं। (पातजना ) कर विषयसेवा कर गन्तमें महादुःखपङ्कम वना पड़ता भुक्त द्रश्य परिपाक हो जाने पर माधुय्यं आदि है। प्रतिफूलस्वभाव इस परिणाम दुःख सुखभोगके . रसको परिणति होती है। विपाकके सम्बन्धमै आयुर्वेद 'समयमें भी योगियों को फ्लेश प्रदान करता है। शास्त्र में कह गया है, कि रस अर्थात् दरपके मास्वाद, कटु, . समोकोपके साथ चेतन और अचेतन इन दोनों ' (कड़वा)तिक्त या तीता, कपाय, मधुर, अम्ल और लवण- उपायों द्वारा दुख अनभत होता है. यहां पजन्य इन ६ गा!में विभक्त होने पर भी उनके विपाक प्रायः हो कमोशय होता है। सुखको उपाय प्रार्थना कर शरीर, : स्वादु, अम्ल, और कटु इन तीन प्रकारके अर्थात् भुक पाक और चित्त द्वारा किया करता रहता है। इससे द्रष्यस्थ उन छः रसोंके जठराग्निके संयोगसे पषय हाने दुसरेके प्रति अनुप्रा और निग्रह दोनों ही सम्भय है। पर ये प्रकृति के नियमानुसार जो स्वादु, अम्ल और कटु इस परानुग्रह पीर परपीडा द्वारा धर्म और अधका केवल इन तीन रसॉर्म परिणत हो जाते हैं, उसीको सञ्चार होता है । यह कर्माशय लोभ या मोहवशतः । वायुर्वेदमें विपाक या रसविपाक कहा है । विपाकका होता रहता है। इसका नाम तापदुम है। . | नियम यह है, कि लवण या मीठा द्रव्य भोजन करनेसे Vol. xxI 112,