पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विभाग हो, तो उस हिस्सका प्राधा ही देनेसे काम घल जायेगा। पुवार्जित धनमें भी पिताका दो भाग है। पितृ- ___ भार्या माताके पाये भागको यदि भोग द्वारा ध्यय कर द्रव्यफे उपघातमें पुनके उपार्जित धनमें पिताको आधा हाले, तो स्त्री पतिसे फिर जोविका-निर्वाहके लिये धन । तदर्जक पुत्रको दो भश और अग्य पुनौको पक एक पानेकी हकदार है। क्योंकि यह अवश्य पोष्य है। अंश देना चाहिये। पितृद्रव्यके उपघात विना अजित हो, यदि उसके भागसे कुछ धन वाकी बच गया हो धनमें पिताको दो 'श, गर्जकपुत्रको भी दो अश और फिर पति के धनका.मन्त हो गया हो, तो जैसे पुत्रोंसे यह अन्यान्य पुत्रों को कुछ भी नहीं देना चाहिये । अथवा ले सकते हैं तैसे स्त्रोसे भो फिर धन ले सकते हैं। क्यों विद्यादिगुणयुक्त पिता आधा लें। विद्याविहीन पिता कि दोनों में एक ही कारण है। फेवल जनककी हैसियतसे दो दो अंश लें। पनी विभागप्राप्त धन न्याय्य कारणफे विना दान या यदि कोई पुत्र अपने परिश्रमसे भातृधनके उप- . विक्रय नहीं कर सकते हैं अश्या वन्धक भी नहीं रम्य घातसे उपार्जन करे, तो उसमें पिताको दो और मकते ।. यह धन यावज्जीवन भोग करते रहेंगे, उसके : इन दोनों पुत्रों को एक एक अंश दे दे। यदि कोई वाद पूर्णस्वामोके उत्तराधिकारी भोगावशिष्ट धन पायेंगे | भाईफे धनसे तथा अपने परिश्रम और धनमे धन उपार्जन ___ जो धन पिता द्वारा उपार्जित होता है. वही अपना करे, तो तदर्जकका दो , पिताका दो मश मौर प्रस्त स्वोपार्जित है। पितामहका हतधन पुनरुद्धार | धनदाताका एक अश होगा। दोनों अवस्थामें हो करने पर भी यह उसे स्योपार्जितवत् उपभोगमें लो सम्यान्य माताओंका कुछ भी अश नहीं है। सकते हैं। पूर्वाहन भूमि पक आदमो परिश्रम कर यदि जिम पौत्र के पिता जोयित हैं, तदर्जित धन पिता- उद्धार करें, तो उसको चार अशका एक अगदेकर | मह न लें। किन्तु पिता ले। दूसरे अपने अपने मोग ले लें। पैतामह स्थायरसम्पत्ति मरणपातित्य या उपरतस्पृहा द्वारा या गृहाधम त्याग रहने पर अस्थायर पैतामह धनमें स्खोपार्जितकी तरह करनेसे तिाका स्वत्य बस होने पर या म्वत्म रहते पिता ही. मालिक हैं। ये ही म्यूनाधिक विभाग कर ] हुए भी उनकी इच्छा होने पर ( पितृधन) विभाग सकते हैं। पुवोंका अधिकार हो जाता है। अतएव उस समयसे • पिता अपने पितास मम्बन्धजन्य जो भूमि, निबन्ध भ्रातृविभागकाल ममझना चाहिये। फिर भी, माताके और द्रव्य पाये हों, यह ध्यपहारमें पैतामह धनमें गिना जायित रहते भी विभाग करना धर्म नहीं अर्थात् धर्मतः जायेगा। क्योंकि उसमें म्योपार्जित धनकी तरह पिता सिद्ध नहीं है। किन्तु व्यवहारमे सिव है । पिता माताके का प्रभुत्व नहीं है। वह धन फ्रमागत पैतामह धनकी जीवित रहने पर पुत्रोंका एकत्र रहना ही उचित है । पिता तरह व्यवहार करना चाहिये। माताफे मर जाने पर या न रहने पर पृया होनेसे धर्म. मातामह आदिफे मरने पर जो धन मिले, उमका | को वृद्धि होती है। (याप ) पितामााके का प्यवहार बोपार्जितकी तरह किया जा मकता है। . गमन करने पर पूर्वोको नाहिये आपमये मिल कर धना पितामहक धनका जत्र पिता विभाग करें, तो उसका | भाग कर ले। किन्तु रिता, जीवित रहने पर पुन उस स्वयं होश लेकर पत्रको एक पकाएंगे मागत धनका मालिक नहीं है। ( गनु) फिर भी, माताको मनुः धनसे पिता दो भाग हण करें। इससे अधिककी लालसा मति प्रहण कर विभाग करने पर धर्मविरुद्ध नहीं होता। करने पर भी घेम ले सकेंगे। पक्ति गणवाणिो ! यहनोका विराई कर लेना आवश्यक होगा। से और भूमिनिबन्ध या द्विपद रूप पैतामह धनका न्यूना. • पिताके कर्माक्षम होने पर पुत्र विभाग करनेमे धिक विमाग देनेकी क्षमता पिताको नहीं। . . . ! म्वाधान है। क्योंकि हारोनका कहना है--'पिनाके स। जीवित रहने पर धनप्रहण और व्यय तथा वन्धक विषयमें पितृहोन पौत्रको और पितृपितामहहीन प्रपोलको पितुः | पुत्र स्वाधीन नहीं है। किन्तु पिता जराग्रस्त हो जाऐं पितामह उनके योग्य मंशदें। ... . ' या प्रयामी हो जाये या रुग्न हो तो ज्येष्ठ पुत्र विषयकर्म उस समय श