पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५४५

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विभाविन-विमापा ४६७ विवेचित, सोचा हुआ। ५ प्रसिद्ध, मशहूर, प्रति- | स्थानमें होनेसे भी क्षति नहीं होगी। इसलिये इस 'नके हित। अर्थ द्वारा भी कहीं कहीं होनेकी विधि स्थिर हुई। मस्तु विमाविन (स.नि.) १ चिन्तायुक्त । २ अनुभवकारो। यह सावित हुगा, कि जहां एक बार विधि और एक बार विमाष्य (स० वि०) १ विचिन्त्य । २ विवेच्य । ३ गम्भीर । निषेध समझा जायेगा वही विभाषा संक्षा होगी। ४ विचारणीय। ___व्याकरणके जिन सव सूत्रों में 'वा' निर्देश है वे विभाषा विभाषा (i० स्त्रो०) विकल्पत्वेन भास्यते इति, वि-माप. संमक सूत्र हैं अर्थात् उनका कार्य एक बार होगा और एक अ (गुरोरच हसः। पा शश१०३) ततधाए । १ विकल्प । चार नहों।' इस निभापाके सम्बन्धमे व्याकरणमे कुछ - पाणिनिके मतसे विभाषांका लक्षण इस प्रकार है नियम लिखे हैं, संक्षेपमें उनका उल्लेख नीचे किया जाता "न वेति विमापा" 'नेतिप्रतिषेधो घेति विकल्प पतः। है,-"योर्विभाषयोर्मध्ये विधिनित्यः" दो विमापार्क- . दुभयं विभापसिंह स्यात् ।' (पा ॥१॥४४) मध्य जो सब विधियां हैं वे नित्य हों गोमर्थात् श्म और "न या शब्दस्य योऽर्थस्तस्य संज्ञा भवतीति यक्त ५म इन दो सूत्रों में यदि 'व' शब्द व्यबहत होता हो, तो प्यम् ।" (महाभाष्य) श्य, ३य और ४र्थ सूतका कार्य विकल्पमें न हो कर नित्य 'तत्र लोके क्रियापदसग्निधाने नवाशब्दयोर्योऽधों-1 ही होगा। (व्याकरणके शासनानुसार इन थोड़े सूत्रोंका घोत्यो विकल्पप्रतिषेधलक्षणः स होत्यर्थः । । कार्य भी विकल्पमें होनेका कारण था, बढ़ जानेके भयसे । (कै प्यट)| उसका विवरण नही दिया गया)। 'वा दपे पदनयं' जहां म (निषेध अर्थात् नहीं होगा) और या (विकल्प- सन्धि आदि स्थानों में दो विकल्पसूत्रकी प्राप्ति होनेसे में अर्थात् एक बार होगा ) इन दोनों शब्दोंका अर्थ एक तीन तीन करके पद होंगे। जैसे एक सूत्र में लिखा है- समय बोध होगा, वहीं पर विभाषा संज्ञा होगी। इस पर स्वरवर्णके पीछे रहने से जो शब्दके 'ओ' कारको जगह प्रश्न हो कर सकता कि-जहाँ निषेध किया गया कि विकल्पमें 'भव' होगा। फिर एक सूत्र में है,-'A' कारकै 'नहीं होगा. वहां फिर किस प्रकारसे कहा जा सकता। पांछे रहनेसे गोशम्धको सन्धि विकल्पमें होती है। है, एक धार होगा। महर्षि पतञ्जलिने भी महामाय इस अनएच गो+मन की जगह पूर्ण सूत्रानुसार गो + अप्र- 'को व्याख्याको जगह इस सम्वन्धमें स्वयं प्रश्न कर उसको | +ग अप+ अन = गवान, शेष सूत्रानुसार 'सन्धि मीमांसा की है--' : विकलपमें होगो' इस कारण विभाषाके लक्षणानुसार

  • किं कारणं प्रतिषेधसंझाकरणात् । प्रतिषेधस्य इणं | स्पष्ट जाना जाता है, कि एक जगह सन्धिका निषेध

संहा क्रियते । तेन विभाषाप्रदेशेषु प्रतिपेधस्यीय प्रत्ययः रहेगा, अतएव यहां 'गो अन" ऐसा ही रहा। अभी यह स्थात् । सिद्ध तु प्रसज्यप्रतिषेधात् । सिधमेतत्। विचारनेकी,वात है, फि अन्तिम सूत्रके विकल्प पक्षको कथं, प्रसज्यप्रतिषेधात ।" : सन्धि पूर्णसूत्रानुसार 'अव' का आदेश को जा सकती है, ___ यहाँ निषेधको संज्ञा करनेका प्रयोजन क्या है? किन्तु उस सून में भी फिर 'वा' का निर्देश करनेफे कारण यदि निषेधकी संझा की जाय, तो विभाषाप्रदेश में अर्थात् | उसके प्रति पक्षमें एक और किसीकी व्यवस्था नहीं करनेसे न और या इन दोनों के अर्धसमावेशस्थलमें एकमात्र प्रति. उस सूत्रका 'वा' निर्देश एकदम व्यय होता है। अतएव पेघकी ही सम्प्राप्ति होती है। कार अधया 'ओ' कारफे याद 'ओ'कार रहने से उसका भगवान् पतञ्जलिने इस प्रकार प्रश्नको मजबूत करके लोप होगा, इस साधारण सूत्रके हारा मोकारके "सिद्ध तु" 'सिद्ध होता है ऐसा कह कर स्वयां मीमांसा परस्थित 'म'कारका लोप करके 'गोऽन' ऐसा एक की है, कि "प्रसध्यप्रतिषेधात्" मर्थात् इस 'न' को निषेध- पद वनेगा। अतपय सूत्र में दो 'या' रहनेसे ३ पद हुए। शकिका प्राधान्य नहीं है। अतएव स 'न' के द्वारा एकदम दूसरो जगह भी इसी प्रकार, जानना होगा। विभाषा नहीं होगा ऐसा अर्थ हो नहीं सकता अर्थात् किसी किसो शब्द द्वारा सन्धिसम्बन्ध में एक और नियम प्रचलित है।