पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५७०

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४६२ - विरह-विरागता से परिणतिको प्राप्त होता है, तो इसका प्रश्न माधुर्य ! कविकलालतामें लिखा हुआ है, कि विरहका वर्णन उपलम्य किया जाता है। महाकवि कालिदासने मेघ- करते समय कवियोंको ताप, निश्वास, चिन्तामौन, शशा. दूत का यक्षके पत्नो-विरह-वर्णनस्थलमें लिखा है- ता, रातका वर्ण घोध होना, जागरण और शीतलतामें "कथित् फान्ताविरहविधुरः स्वाधिकारप्रमत्तः।" उष्णताका बोध आदिका वर्णन करना चाहिये। इससे मालूम होता है, कि विरहि-जन प्रियाफे न ! विरदा (सं० पु० ) एक प्रकारका गोत जिसे मोर और देवनेम्मे विलकुल उन्मत्त हो जाते हैं। यह उन्मत्तता यदि गडेरिए गाते हैं। यिरहा देखो। ऐवभावमे प्रणादित हो अर्थात् भगवानमें आसक्ति हेतु । दिरहानदीभेद । तापीयक्ष बिरहाका मङ्गम एक उनकी ही प्रेम प्राप्तिको आशासे उन्हीं के चरणों की ओर ।' धायमान हो, तो यह विरह निःसन्देह सर्वोत्कृष्ट कहा । पुण्पतीर्थ माना जाता है। (वापीख० ३५१) .. जायेगा। विरहिणो (सं०नि०) जिसे निप या पतिका यियोग हो.. पृन्दायनमें श्रीराधाकृष्णको प्रेमवैचित्रपूर्ण लोला. जो पति या नायकसे अलग होने के कारण दुस्प्लो हो। . . कहानी में श्रीकृष्णके अदर्शनसे श्रीराधाको जो विरद विरहिन ( सं० वि०) विरहोऽस्यास्तीति विरह-इनि। . अवस्था और उत्कएठा भाव उपस्थित होता है, यही घिरहयुक्त, वियोगी। घिरहको प्रकृति है और इसीलिये यह प्रेमका एक भाव या विरहित (सं० त्रि.) पि-रहक। त्यक्त, विहोम, यिनी । मङ्ग कहा जाता है। विद्यापति, चण्डिदास, गोविन्ददास विरहो (सत्रि) जिससे प्रियाका यियोग हो, जो प्रिय. आदि वैष्णव कवियों ने उसो विरहको मतस्यका शो तमासे अलग होने के कारण दुःखा हो। । स्थान कहा है। क्योंकि विरह न होनेसे भगवान का नाम घिरहोत्कण्ठिना ( स० स्त्री० । नायिका भेदके अनुमार' निरन्तर हृदयमें जागरित नहीं होता या होता ही नहीं। प्रियके न आनेले दुखो यह नायिका जिसके मनमें पूरा . अतः विरहभाषको प्रम (शृङ्गार) रसको उत्कृष्ट अय- विश्वाम हो, कि पति या नायक आवेगा,, पर फिर भी . लग्यन कहा जा सकता है। किसी कारणवश यह न आये। . . प्रघास या अन्तरालका अवस्थान हो अदर्शनका विराग (सपु०) पिरन्ज:घन 1, १ अननुराग, राम. प्रधान भाश्रय है। इसीलिये पर विरहोकका प्रधान- शून्य, चाहका न होना। विषपके प्रति जो अतिशय राग सम कारण है। वैष्णीने विरहको भाषी, भयन और भून ! होता है, उसे.मानसिक मल पहने हैं तथा विषय प्रति गामसे तोग भागो में बांट दिया है। कुछ लोग तो प्रयास । जो पिराग या अनुरागशून्यता है उसीको नस्य कहा : फेो हो विरहका मूल उपादान कहे गये हैं। श्रीकृष्णके है। विषयके प्रति विराग उपस्थित होने होसे मानय माग्यो साथ मधुरामें जाने पर पृन्दारपमें श्रीराधा और प्रवज्याका अबलम्बन कर भगवान्में लोग हो जाते हैं। सपियों को जा विरद उत्पन्न हुआ, यह पैगम प्रन्यों में इसी कारण तिने का है,-"यदहरेस विज्येत तहहरेय माधुर कह कर परिकोर्तित हुआ। इस समयसे प्रभास प्रयत" (अति) विरागके उपस्थित होनेसे ही प्रवज्या. यश तक राधाके हृदय, दारुण विरहानल प्रज्वलित हुआ फा अवलम्बन कर्तव्य है। २ उदासीन भाय, किसी . था। राधाका यह विरद पारिभाषिक है, इससे यह प्रेगा. यस्तुसेन विशेष प्रेम होना नदेय।३ वीतराग, सांसा- स्मा है। श्रीकृष्णफे मथुरागमन विच्छेदमें नन्द यशोदाके रिक सुम्दों की चाद न रहना, विषयभोग मादिसे निवृत्ति।। मनमें श्रीकृष्णके गदर्शनसे जो दुःख हुआ, उसे घेणय । ४ एकमें मिले हुए दो राग। एक राग जय दूमरा राग कवियों ने विरह नहीं पादा है। क्योंकि नन्द यशोदाको मिल जाता है तब उसे यिराग कहते हैं। (त्रि०)५ कृष्णानुरक्ति घाटमपभावपूर्ण और राधाको कृष्णप्रीति विविध रंगविशिष्ट, रंग यिरंगका। ..., प्रेमप्रस्रवणप्रसुत है। ... - माधुर या प्रवास भूतपिरहके अन्तर्गत है । इसमें | विरागता (सं. स्त्री०) विरागस्य मायः तल्टाए ।' . 'भो और कई भेद हैं। .. . । विरागका भाव या धर्म । .....: . . .