विरापता-विरिञ्चिचक्र
सुस्ताना। ४ वायके अन्तर्गत यह स्थान जहां योलते
साय ठहरना पड़ता हो । ४ छन्दकै चरणमें यह स्थान
जहां पढ़ते समय कुछ ठहरना पड़े, यति । '५ व्याक-
रणके मतसे परवर्णनका अभाव । पाणिनिके मतमें विराम |
कहने पर परवर्णका अभाघ (अर्थात् पोछे कोई वर्ण नहीं ;
है पेसा) समझा जायेगा।
विरामता (स० स्त्री० ) विरामस्य मांय, तल साप ।।
विरामका भाव या धर्म, विरति ।
विरामब्रह्म ( स० पु०) सङ्गीतम ब्रह्मतालफे चार भेदीम से .
एक भेद।
विराल ( स० पु०) विहाल, विल्ली।।
विराव (सपु०) वि-रु-घन । १ शब्द, कलरव, बोली ।।
२ हल्ला गुल्ला, शोरगुल। (त्रि०) विगतः रायो यस्य ।
३ रपदोन, शम्बरहित।
यिराविणो (स० वि०) १ शब्द करनेवाली। २ रोनेवाली,
चिल्लानेवालो । (स्त्री.)३ झाड़।
विरायिन् ( स० नि) विराधी विद्यतेऽस्येनि इन् ।
१ शब्दकारी, बोलनेवाला । २शदधिशिष्ट, नेवाला,
चिल्लानेवाला। (पु०) ३ धृतराष्ट्र के एक पुत्रका नाम।
.
(भारत भादिप०),
उक्त चक्रमें निर्देश किया जाता है, कि कृत्तिका, उत्तर.
विराधी ( नि.) विराविन वेखो।
फल्गुनी और उत्तराषाढाको जन्मसंहा रोहिणी, घस्ता
विरापद् ( स० पु०) यमलोक । (ऋक १३५॥६)
और श्रवणाकी सम्पद मृगशिरा, चित्रा और धनिष्ठाको
विरापाह (स'० पु० ) यमलोक।
विपद । भद्रा, स्वाति, और शतभिपाकी क्षेम, पुन यनु,
विरिक्त (स.नि.) वि.रिच-का १ विरेचनविशिष्ट विशाखा और पूर्वभाद्रकी प्रत्यार, पुण्या, अनुराधा और
जिसे दिरेचन दिया गया हो । २ जिसका पेट छूटा हो, उत्तरभाद्रपदको साधका अश्लेपा, ज्याठा, और पतीको
जिसे दस्त माता हो।
बध, मघा, मूला और अश्विनीको मित्र ; पूर्णफल्गुनी,
यिरिश्च (सं० पु.) १ ब्रह्मा । (भागवत 51॥३६) २ विष्णु ।
पूर्वापाढ़ा और भरणीको अतिमित्र संशा होती है। इस
३शिव।
जन्म संशक नमनत्रयमे शनि, क्षेम संशक नक्षतनयम
विरिश्चता ( स. स्त्रो०) ब्रह्माका कार्य, ब्रह्मत्व।
मङ्गल और राहु तथा मिनातिमिलपटकम रवि अवस्थित
विरिश्चन (सपु०) प्रहा। (हेम)
रहने पर जीवका वध और यन्धन हो सकता है। यदि
.
जन्म सहक तीन नक्षत्रों में यहस्पति तथा क्षेम संशक
विरिचि (सपु०) १ प्रला । (अमर) २ विष्णु.। (हरिव।)।
तीन नक्षत्रो में शुक्र और बुध तथा मित्र मोर तिमिव ये
३ शिव 1 - ( शम्दर०) ४ एक प्राचीन कपि।
तीन और तीन छ। चन्द्रमाके रहने पर जोयको मर्चन
विरिश्चिक (सको०) ज्योतिपोक्त चक्रभेद । फलित | लाभ तथा जय गौर सुवमोग होता है। यदि विपद्,
ज्योतिष में इसका निर्देश यो है...', . ." | प्रत्यरि मोर पंघ इन तीन महाविशिष्ट नी नक्षतोंमें
_Vol. xxI. 127
विरिशिचक्र
जन्म सम्पत् विपत् । क्षेम प्रत्यारि साधक | वध मिल | अतिमित्र
कृत्तिका रोहिणी मृगशिरा मार्दा पुनर्वसु पुष्पा अश्लेषा गघा | पूर्वाफल्गुनी
उत्तरफा | हस्ता चित्रा ग्याति विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूला पूर्वापाड़ा
निरापाढ़ा श्रयणा | धनिष्ठा शतभिषा पूर्वभाद्र उत्तरभाद्र रेवतो | अश्विनी भरणी
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५८१
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