पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५०६ .. विरिञ्विनाथ-विरुद्धं रोग उत्पन्न होता है तथा ये नक्षत्र शनि, रवि, मङ्गल । भारतीय रेलचेका एक स्टेशन है। इस नगरमें तरह तरह आदि क्रूर ग्रह द्वारा विद्ध होते हैं। ऐसा होने पर प्राणी के द्रयोका वाणिज्य चलता है। चिररोगी या मृत्युमुखमें पतित होगा। फिर अगर विरुदावली (स० स्त्री०) १ विरुदानामावलो । २ किसोफे साधारणतः जन्म सशक तीन नक्षत्रों में पे सव क्रूर ग्रह गुण प्रताप पराक्रम आदिका सविस्तर कथन, यश- भयस्थित हो तो मृत्यु, शुभ-ग्रहों के पड़नेसे जयलाभ | कीर्तन, प्रशंसा। होता तथा शुभ और फर इन दोनों ग्रहों के अवस्थानसे | विरुद्ध ( स० लि.) विरुधाक । १ विरोधविशिष्ट । मिश्न अर्थात् शुभ और अशुभ दोनों फल होते हैं। । “विरुद्ध धर्मसमवाये भूयसां स्यात् सधर्मकत्यं ॥” (नरपतिजयचर्या) (जैमिनिसूत्र), विरिशिनाथ-कुछ काव्य रचयिताके नाम । विरुद्ध धर्मका समवाय होने पर बाहुल्यका सधर्म- विरिधिपावशुद्ध ( स० पु०) शङ्कराचार्यका एक शिष्य । | करव होता रहता है अर्थात् तिलराशिमें कुछ सरसों विरिञ्चिपुरम्-दक्षिण भारतके अन्तर्गत एक नगर। है, यहां तिल और सरसों निरुद्ध है और इनका समवाय विरिश्चश्वर-शिवलिङ्गभेद । भी हुआ है। किन्तु ऐसा होने पर भी बाहु तिलोंक विरिन्च्य ( स० त्रि०) विरश्चि-यत् । १ ब्रह्मसम्बन्धोय । सधर्मकत्वसे यह तिलके नामसे ही अभिहित होता है। (पु०) ब्रह्माका भोग। ३ ब्रह्मलोक । सरसों रहने पर भी उसका कुछ उल्लेख नहीं हुआ। पिरिग्ध ( स० पु०) स्वर । इस तरह विरुद्ध धर्मके समवायसे वाहुल्यका ही प्राधान्य विरुषमत् (स० वि०) १ उज्ज्वल, दीप्तिविशिष्ट । २ विरो. होता है, अल्पका नहीं। । चनवत् । (ऋक १०।२२।४ सायण ) ___२ दशम मनु ब्रह्मसावर्णिके समयका देवताभेद । विरुज् ( स० स्रो०) विशिष्ट रोग । ( भागवत ६१६२६ ) | (क्ली० ) ३ घरकके मतसे विचाराङ्गदोपविशेष । जो घिरुज (सं० नि०११ रोगशून्य । २रोगी। दृष्टान्त और सिद्धान्त द्वारा विरुद्ध-सा मालूम हो, उसका विस्त (स० लि०) १ कूजित, रव युक्त, भव्यक्त शब्दयुक्त । ! नाम विरुद्ध है। (लो०) २ रव। . .. ४.विरोधयुक्त हेत्वाभासभेद । अनेकान्त, विरुद्ध, विरुद ( स० फ्लो० ) १ प्रशस्ति, यशकीर्तन । विरुद दो असिद्ध, प्रतिपक्षित . और कालात्ययोपदिष्ट ये पांच . प्रकारका है-वाशिक और कम्पित । पूर्वाचार्य कह गये प्रकारके हेत्वाभास हैं। जो हेत्वाभास साध्यविशिष्ट हैं, कि यहां भी संयुक्त नियम रहेगा । विरुदमें आठ | अवस्थित नहीं, उसको विरुद्ध कहते हैं। या सोलह कलिका रहती है। किन्तु विरुदयर्णना. __ ५ देश, काल, प्रकृति और संयोग विपरीत है। जो कालमें साधारणतः दशसे अधिक कलिका देनो नहीं हय, जिस देशके जिस समयके और जिस प्रकृतिको होतो। इसी प्रकार कलिकामें भो भेद है। कयियोंने विपरीत क्रिया करता है, अथवा जो दो वस्तुएं आपसमें गुणोत्कर्षादि वर्णनको विरुद कहा है, विरुदफे अन्त में मिल कर कोई एक विपरीत किया करती हैं, आयुर्वेदविद् धीर और घोरादि शब्द रहेंगे। २ यश या प्रशंसासूचक द्वारा यह विरुद्ध नामस अभिहित है। फमसे उदाहरण उपाधि जो राजा लोग प्राचीन कालमें धारण करते थे। द्वारा विपत किया जाता है- '...' जैसे-चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य । इसमें चन्द्रगुप्त तो नाम है देश विरुद्ध जाइल, अनूप और साधारण भेदसे और विक्रमादित्य विषद है । ३ यश, कीर्ति। ४ रघु. देश तीन प्रकारका है ।जाङ्गल (मल्प जलविशिष्ट वनपद- देवकृत अन्धभेद । तादि पूर्ण) प्रदेश यातप्रधान, अनूप (प्रचुर घृक्षादिसे विरुदपति-मन्द्राज प्रदेशके तिन्नेवाली जिले के अन्तर्गत | परिपूर्ण, बहूदक और चातातप दुर्लभ ) प्रदेश कफ- 'सातुर तालुकका एक नगर। यह अक्षा ३५०प्रधान और साधारण अर्थात् पे दोनों मिश्रित प्रदेश : तया देशा० ७८१ पू०के मध्य विस्तृत है। यहां दक्षिण | व.तादिके समताकारक हैं। .....