पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५९९

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विरोचनसुत-विरोधक भारत १।६।१६).११ चमकना, प्रकाशित होना । (ति) विरोधमाघ दिखाई देता है अर्थात् सुननेसे लोग समभंगे, १२ दोप्तियुक्त, प्रकाशमान । कि ऐसा कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि ये विरुद्ध विरोचनसुत ( स० पु.) वलिराज। पदार्थ है । यह सत्य है सही, पर विरहिणीके सोप उन विरोचना (स'० स्त्री०) यिरोनन-याप। १ स्कन्दमातृमेद । सब जातियोंकी गुणक्रियादि उसो आकारमें दिखाई देती '(मारत शल्य०) २ विरजको माता।। हैं। इसी कारण इसका समाधान है । गुणके माथ गुणादि. . चिरोमिष्णु (सनि.) परप्रकाशक ! .. का,-"हे महाराज ! भाप जैसे राजाके रहते सर्वदा विरोवा (स.वि.) विरोधपोग्य। . मुपलके व्यवहारसे द्विजपनियों के कठिन हाय कोमल हो विरोद्ध, (संत्रि०) १ विरुद्धकार्यकारी। (पु०) गपे हैं।" यहां राजाको दानशक्तिके प्रति श्लेप करके कहा २ कपद कपूर। गया है, कि आपकी दानशक्तिके प्रभावसे ही ब्राह्मणों को विरोध ( स० पु०) विरुध-घन । १शल ता, दुश्मनो। पद कटकरवृत्ति अवलम्यन करनी पड़ी है। फिर यहां पर्याय-धैर, बिपि, देप, द्वेषण, अनुशय, समुच्छाय, . काठिन्यगुणके साथ कोमलताका मापाततः विरोध दिखाई पर्ययस्था, विरोधन । विरोध नाशयोज सभी प्रकारके | | देता है। किन्तु पालनीयके प्रति ऐसी दानशक्ति उपद्रवीका कारण है। . . " दिखानेसे यह समाहित हो सकता है।-गुणके साथ विप्रतिपत्ति । (न्यायस्त्र भाष्यमें वात्स्यायन) ३ दो धातों- क्रियाका-“हे भगवान् ! आप अज (जन्मरहित ) का एक साथ न हो सकना। ४ युधिप्रद । ५ वामनः हो कर जन्म लेते हैं तथा निद्रित (निर्लेप) प्राप्ति ।। ६ अनेक्य, मतभेदं। ७ उल्टी स्थिति, सर्वथा | हो कर जागरूक हैं, आपका यह याथायं कौन जान दूसरे प्रकारकी स्थिति । ८ नाश, विपरीतभाव । मारक- सकेगा ?" इस वर्णनमें जन्मरहितका जन्मप्रवण और का एक गङ्ग। इसमें किसी यम्तुको घणन करते समय निद्रितका जाप्रतत्य ही आपाततः परस्पर अजत्वादिगुण- विपत्तिका आभास दिलाया जाता है । -"मैंने अवि के साथ जन्मप्रणादिक्रियाका विरोध है । परन्तु • मृश्नकारिताप्रयुक्त अन्धको तरद निश्चय हो ज्वलन्त ! भगवान्के प्रभायातियित्व द्वारा ही इसका समा- अनल में पदक्षेप किया है।" ( चपडकौशिक) . . धान है। गुणके साथ याका-कान्नाके अङ्कन लिपटी ___ अलङ्कार विशेष । जाति = गोत्य, ब्राह्मणत्यादि, गुण = रहने के कारण उस हरिणाक्षीको पूर्ण निशाकर दारुणः . कृष्ण, शुक्लादि । क्रिया=पाकादि द्रष्य = यस्तु, जाति विषयालाका उत्पादक मालूम पड़ने लगा। यहां सोम '. जात्यादि ( जाति, गुण, क्रिया और द्रश्य ) चारोंके साथ, ( शीतल ) गुणविशिष्ट द्रव्यवाची चन्द्रको विपश्याला- गुण, गुणादि (गुण, क्रिया और द्रव्य) इन तीनों के साथ, का उत्पादकत्य मापतिविरुद्ध है सही, पर यिरहिणीको क्रिया, क्रियादि (क्रिया और द्रव्य) दोनों के साथ तथा उमी प्रकार मालूम पड़ने के कारण उसका समाधान है। द्रव्यद्रव्य के साथ, इन दश प्रकारमें आपाततः विरुद्धमा क्रिया के साथ क्रियाका,-"उस मदविलनयना कामिनी- दिखाई देनेसे उसको विरोधालङ्कार कहते हैं। यथाक्रम का गतितृप्तिकर, मनःसङ्कलातीत रूपमाधुरी देख कर • उदाहरण,--"तुम्हारे विरहमें इसके ( सखोके) समीप मेरा हृदय बहुत उल्लासित गौर. सन्तापित होता है।" मलयानिलं" दावानल, चन्द्रकिरण अति उष्ण भ्रमरझङ्कार यहां उल्लास और सन्ताप इन दोनों क्रियाओंका एकत्र दारुण हदयविदारक तथा नलिनीदल निदाघ सूर्यको तरह समावेश आपाततः विरुद्ध मालूम होता है, किन्तु यथार्थ- मालूम होता है। यहां निट्याने कसमंधेतत्वं जातित्व में कामिनीको नयनानन्दकर मदनाहोपक रूप देख कर • बहुतो का समवाय (मिलन) ही जाति है, क्योंकि मलय अत्यन्त प्रति तथा उसके (उम नारोका ) न मिलनेका पयन आदि बहुतो का समय हुमा है । - उनके फिर मदनताप, डानी क्रिया हो एक समय दिखाई देता हैं। दायानल (जाति), उष्ण (गुण), हृदयभेदन (क्रिया) विरोधक (सं० वि सिरोधकारी, शतु । (पु०) २ नाटक- • तथा सूर्य (द्रव्य ) इन बार.प्रकारके साथ श्रापतिता में वे दिश्य जिनको वर्णन निषिद्ध हो।। . ' Vol XXI, 130