पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६१४

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५३० विल्वमङ्गल-विवक्षित चिल्वमङ्गल ( स० पु०) भक्त और महाकवि सूरदासका, जताया या कहा जा सके अधया जिसकी विशेषरूपसे अग्धे होनेसे पूर्व का नाम । बिल्वमल ठाकुर देखो। स्तुति की जाय, उसे विचक्षण कहते हैं। । । वित्वमध्य (स' क्लो०) १.विश्वशस्य। २ वेल सठि २.प्रातथ्य, पाने लायक। (शक डा।२५) ३ हवन- विल्वा (स. स्त्री०) हिंगुपत्री। शील, माहुतिप्रदाता। (क फा३५॥२३) . . विल्बादिकपाय ( स० ० ) चातभ्वरनाशक काय (पाचन ) विशेष। विल्यमूल, सोनापाठा, गम्भारी, विषक्षा (सं० स्त्री०) वक्तुमिच्छा वि-वन सन् अब स्त्रियों पारली, गनियारी, गुड मी, आमलकी योर धनिया, राप्। १ कोई बात कहनेको इच्छा, बोलनेकी इच्छा। इनसे प्रत्येक चौअनी भर लेकर आध सेर जलमें | व्याकरणम लिखा है कि, "विवक्षावशात् कारकाणि पाक फरे। जब आध पाय मंदाज र६ जाये, तव नीचे भवन्ति" विवक्षानुसार ही कारक होते है अर्थात् यता उतार कर महीन कपड़े से छान ले । उसके पीनेसे वात- जिस भायम वोलना चाहे, उसी भाव पोल सकते हैं। उघर नष्ट होता है। पोछे उनके उसी प्रयोगानुसार कारकादिका निर्णय करना विल्मान्तर ( स०पु०) १ कण्टकिवृक्षविशेष । २ उशीर | होता है। जैसे-"धन यानते राजभ्यः" राजाओंसे घना नामक घोरतर, अस। तेलगू भाषामें इसे वेणुतुरुचेटून की जांचना करता है। "परशुश्छिनत्ति" परशु (कुठार) कहते हैं। इसका फूल जातिफलके वरावर तथा सफेद, । (वृक्षको) काट रहा है। प्रथम स्थलमै राजाओंको अर्थात् काला, लाल, बैंगनी और हल्दी गादि रंगका होता है और 'राजागोस' इस अर्थ में 'राजम्या ( चतुर्थी ) वा. राह इसके पत्ते शमिवृक्षके पत्ते के समान होते हैं। इसका (द्वितीया ) इन दोनोंके प्रयोगमै यता "विवक्षायशात्" गुण-कटु, उष्ण, आग्ने य, वातरोग और सन्धिशूल: | ग मशिल "कारकाणि भवन्ति" इस प्राचीन अनुशासनानुसार नाशक। (राजनि०) उसकी (उन दोनों पर्दोको) जो इच्छा होती है, घे उसीका भावप्रकाशमें इसका गुण इस प्रकार लिखा है प्रयोग कर सकते हैं। द्वितीय स्थल में भी प्रदर्शितरूपसे विल्वान्तररसमें और पायमें तिक्त, उष्णधीर्य, कफ, अर्थात् परशु (स्वयं) काट रहा है। इन दोनोंका जिस मूत्राघात और अश्मरीरोगनाशक, सग्राही (धारक) तथा प्रकार चाहे वक्ता प्रयोग कर सकते हैं। अभी इनमेसे योनि, मूत्र और यायुरोगनाशक है। १३-जाङ्गलदेश । ४ । कहां पर कैसी विवक्षा को गई, वहीं लिखा जाता है,-- नर्मदातर । ५ चर्मण्यती नदीके समीप, .. प्रथम स्थलमै राज शब्द 'याचते' यह याचनार्थ द्विकर्मक विवंश (स० पु०) १ विशिष्ट पश। रघ'शरहित । 'याच' धातुका गीणकर्म है, इस कारण इसके उत्तर में विय (हि. वि०) १ दो।, २.द्वितीय, दूसरा। ।। द्वितीया विभक्तिका हो होना उचित है। किन्तु यहां पर विवि देखो। यदि वक्ता इच्छा करके चतुर्थी विभक्ति करे, तो फलि. विवकृत ( स० पु०) १बहुत बोलनेवाला, पाचाल । २ तार्शमें जानना होगा, कि बताने कर्ग या द्वितीयाको स्पष्ट बोलनेवाला । ३ पक्का, बाग्मी । जगह चतुर्थी को है। द्वितीय स्थल में भी इसी प्रकार विवयत ( स०नि० ) १ विशिष्ट वक्ता, बहुत वोलनेवाला। जानना होगा, कि करण कारफका वक्तृत्व विवक्षा हुई २ किसी वातको प्रकट करनेवाला।। ३.दुरुस्त करने या है, क्योकि काई पक कत्तो नहीं रहनेस अचेतन पदार्थ सुधारनेयाला, सशोधन करनेघाला। , , परशुको खय छेदन करनेकी शक्ति नहीं है। दूसरे दूसरे वियतत्य (सं० लो०.) विशिष्ट वक्ताका भाव या धर्म। स्थानों में भी घटनानुसार विचार कर.इसी प्रकार जान विवफ्यम (सनि०) विशिष्ट वक्ता, जो स्तुतिषाक्य | लेना होगा। । कहने में निपुण हो।. ..। ..: . .. २ शाक्त। (एकादशीतत्व) . विवक्षण (सावि०) वि वच् (या वह) सन् ल्युट्। १-शाप | विवक्षित (स० वि०) वि वच सन्-त.।, जिसकी ..आय. नोय, कथनीय, स्तुत्य ! जिसको कोई अमित, विषय | श्यकता या इच्छा हो, इच्छित, अपेक्षित । २ शपयार्थ।