पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पियति तसन्धि-विवश ५३४ । नोड हो अर्थात वहां जितने पदार्थ थे उनसे कुली . .. काकोल्यादि मधुरगणोय द्रव्योंके क्वाथ और कल्कके साथ नाङ्ग हो अर्थात् वहां जितने पा | सद्भाव हो तथा चे सर्व स्थान यदि अच्छी तरह आकु. . ! घृतपाक कर रोगीके नस्यरूपमें ग्रहण करने दे। का चित और प्रसारित हो सके, तो जानना चाहिपे, कि ___ कपालभग्न,-कपालके मग्न होने पर यदि मंजका श्चित और प्रसार उसे सन्धि सम्पूर्णरूपसें संलिप्ट हो गई है। ( उ त चि० : सन्धि सम्पर्ण घो वाहर न निकले, तो घृत और मधु प्रदानपूर्वक उसे नपान करावे। स्था०) विस्तत किया स्था०) विस्तृत विवरण भग्न शब्दमें देखो। वांध दे तथा सात दिन तक रोगोको घृत पान करावे। पर उस- विवर्सिन (सं०नि०) १ विवर्तनशोल, भ्रमणशील । २ . हस्ततल भग्न, दक्षिण'हस्ततलके भग्न होने पर उस-विवर्तिन/i छ माथ यामहस्ततल अथवा वाम इस्ततलक भग्न दान परिवनिशोर .. लोक भग्न होने विवत्मन् (सं० वी० ) १ विपथ। २ विशेषपथ । पर उसके साथ दक्षिण हस्ततल अथवा दोनोंके भग्न होने, विवत्मेन (0 साथ खूब मज-विवद्धन (सं० क्ली०) वि-ध णिच ल्युट । १ बढ़ाने ' ' पर लकड़ीका इस्ततल बना कर उसके साथ खूब मज-विव प्रतोसे वांध दे, पीछे उस पर आमतेल ( कच्चा तेल) या यदि और पहले गोधरका गुल्ला, पीछे ४ खण्डन। ५घृत । (त्रि०) ६ वृद्धिकारक। लगा दे। गारोग्य होने पर पहले गोवरका गुल्ला, पाछे! : मिट्टोका गुल्ला और हाथमे बल और हाथो दल आने पर पत्थरका टुकड़ा विवद्धनीय (सं० वि०) वि-ध-जनीयर। वद्धनयोग्य. उस हाथ पकड़े। धढ़ने लायक। मान-प्रोवादेशस्थ मक्षक नामक सन्धिक विवद्ध यिपु' (सं० त्रि०) 'विवयितुमिच्छः विधः । विट होनेसे मूपल द्वारा मत करके अथवा उन्नत | णिच सन्-उ | विवर्द्धनेच्छु, जिसने बहुत पढ़ानेको इच्छा होनेसे मपल द्वारा अयनत करके खूब कस कर.वांध दे। को हो। ', ' ' CH मान होनेसे पूर्ववत् . ऊरु भग्नकी तरह | विवद्धित (स० वि०) १ वृद्धि प्राप्त, वढ़ा हुमा | २ उन्नत, .. चिकित्सा करनी होती है। | उन्नतिप्राप्त । यापि पतन या अभिघात द्वारा शरीरका कोई अङ्ग | विवद्धिन (स'. सिं०) विवद्धि तु शीलं यस्य। १ यद्धम. क्षत न हो कर फेवल फूल उठे, तो शीतल प्रलेप और शोल, बढ़नेवाला । विवयितु शीलं यस्य । २ पदक, परिपेक द्वारा चिकित्सा. करनी होती है।, बहुत दिन | बढ़ानेवाला । . ' पहले सन्धियों के विश्लेप होनेसे स्नेह प्रदानपूर्वक स्वेद विषर्षण (सं० क्ली० ) १ विशेषरूपसे वर्षण, खूप जोरसे . प्रदान और मृदुक्रिया तथा युक्तिपूर्वक पूर्वोक्त सभो | घरसना। २ वृष्टि न होना, वर्षाका भाव । ... क्रियाओंका अच्छी तरह प्रयोग करे। काण्ड अर्थात् | विवषिषु ( स० वि०) विवर्षितुमिच्छु: विधर्म-सन्-। वृहत् अस्थि यदि हट जाये और कुछ दिन बाद फिरसे | वर्पण करनेमें इच्छुक । समान भावसे संलग्न हो भर जाये, तो उसको फिरसे | विवल ( स० त्रि०) १'दुर्वल, कमजोर । २ विशेषल. मन मा संलग्न कर भग्नको तरह चिकित्सा करनी| युक्त, बलवान् । देश अर्थात मस्तकादिक मग्न होने विधि (स.लि.) विगतज्वर, विगतताप, सन्ताप- इको पत्तोसे शिरोयस्ति या. कर्णपूरणादिका रहित वित होता है तथा वाह.अङ्गा जानु आदि भङ्गी "वभ्रस्यमन्ये मिथुना विवनी" ( क । माघारमा टटनेस नस्य. वृतपान और वहि-/ विधश (स.नि.) विरुद्ध यष्टोति' यि-यशाचा पर यदि होता है। .. . अवशीभूतारमा, जिसको आत्मो वशमें न हो । २ मृत्यु- गम हो क ति नापि मालूम हों, अधोत् हिलन लक्षणम गति दिलने ' लक्षण भ्रष्टवुद्धि, वह जिसको युद्धि मृत्यु आने पर भ्रष्ट . हो, तो उसे या किसी दूसरी सरों वस्तके हो गई हो। ३ अयाध्य, लाचार, येवस। ४.अचेतन, कारणसे आ या वह स्थान' अनुन्नत हो निश्चेष्ट। ५ विहल, व्याकुल । ६ स्वाधीन, मो.काकूमें । मृत्युमाता ८ मृत्युमीत। ' स्थिान साधासमता प्राप्त भौर महोन आवे । वि