पियति तसन्धि-विवश
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। नोड हो अर्थात वहां जितने पदार्थ थे उनसे कुली .
..
काकोल्यादि मधुरगणोय द्रव्योंके क्वाथ और कल्कके साथ नाङ्ग हो अर्थात् वहां जितने पा
| सद्भाव हो तथा चे सर्व स्थान यदि अच्छी तरह आकु. . !
घृतपाक कर रोगीके नस्यरूपमें ग्रहण करने दे।
का चित और प्रसारित हो सके, तो जानना चाहिपे, कि
___ कपालभग्न,-कपालके मग्न होने पर यदि मंजका श्चित और प्रसार
उसे सन्धि सम्पूर्णरूपसें संलिप्ट हो गई है। ( उ त चि० :
सन्धि सम्पर्ण
घो वाहर न निकले, तो घृत और मधु प्रदानपूर्वक उसे
नपान करावे।
स्था०) विस्तत किया
स्था०) विस्तृत विवरण भग्न शब्दमें देखो।
वांध दे तथा सात दिन तक रोगोको घृत पान करावे।
पर उस- विवर्सिन (सं०नि०) १ विवर्तनशोल, भ्रमणशील । २ .
हस्ततल भग्न, दक्षिण'हस्ततलके भग्न होने पर उस-विवर्तिन/i
छ माथ यामहस्ततल अथवा वाम इस्ततलक भग्न दान परिवनिशोर ..
लोक भग्न होने विवत्मन् (सं० वी० ) १ विपथ। २ विशेषपथ ।
पर उसके साथ दक्षिण हस्ततल अथवा दोनोंके भग्न होने, विवत्मेन (0
साथ खूब मज-विवद्धन (सं० क्ली०) वि-ध णिच ल्युट । १ बढ़ाने '
'
पर लकड़ीका इस्ततल बना कर उसके साथ खूब मज-विव
प्रतोसे वांध दे, पीछे उस पर आमतेल ( कच्चा तेल) या यदि
और पहले गोधरका गुल्ला, पीछे ४ खण्डन। ५घृत । (त्रि०) ६ वृद्धिकारक।
लगा दे। गारोग्य होने पर पहले गोवरका गुल्ला, पाछे! :
मिट्टोका गुल्ला और हाथमे बल
और हाथो दल आने पर पत्थरका टुकड़ा विवद्धनीय (सं० वि०) वि-ध-जनीयर। वद्धनयोग्य.
उस हाथ पकड़े।
धढ़ने लायक।
मान-प्रोवादेशस्थ मक्षक नामक सन्धिक विवद्ध यिपु' (सं० त्रि०) 'विवयितुमिच्छः विधः ।
विट होनेसे मूपल द्वारा मत करके अथवा उन्नत | णिच सन्-उ | विवर्द्धनेच्छु, जिसने बहुत पढ़ानेको इच्छा
होनेसे मपल द्वारा अयनत करके खूब कस कर.वांध दे। को हो। ', ' '
CH मान होनेसे पूर्ववत् . ऊरु भग्नकी तरह | विवद्धित (स० वि०) १ वृद्धि प्राप्त, वढ़ा हुमा | २ उन्नत, ..
चिकित्सा करनी होती है।
| उन्नतिप्राप्त ।
यापि पतन या अभिघात द्वारा शरीरका कोई अङ्ग | विवद्धिन (स'. सिं०) विवद्धि तु शीलं यस्य। १ यद्धम.
क्षत न हो कर फेवल फूल उठे, तो शीतल प्रलेप और शोल, बढ़नेवाला । विवयितु शीलं यस्य । २ पदक,
परिपेक द्वारा चिकित्सा. करनी होती है।, बहुत दिन | बढ़ानेवाला । . '
पहले सन्धियों के विश्लेप होनेसे स्नेह प्रदानपूर्वक स्वेद विषर्षण (सं० क्ली० ) १ विशेषरूपसे वर्षण, खूप जोरसे .
प्रदान और मृदुक्रिया तथा युक्तिपूर्वक पूर्वोक्त सभो | घरसना। २ वृष्टि न होना, वर्षाका भाव । ...
क्रियाओंका अच्छी तरह प्रयोग करे। काण्ड अर्थात् | विवषिषु ( स० वि०) विवर्षितुमिच्छु: विधर्म-सन्-।
वृहत् अस्थि यदि हट जाये और कुछ दिन बाद फिरसे | वर्पण करनेमें इच्छुक ।
समान भावसे संलग्न हो भर जाये, तो उसको फिरसे | विवल ( स० त्रि०) १'दुर्वल, कमजोर । २ विशेषल.
मन मा संलग्न कर भग्नको तरह चिकित्सा करनी| युक्त, बलवान् ।
देश अर्थात मस्तकादिक मग्न होने विधि (स.लि.) विगतज्वर, विगतताप, सन्ताप-
इको पत्तोसे शिरोयस्ति या. कर्णपूरणादिका रहित
वित होता है तथा वाह.अङ्गा जानु आदि भङ्गी "वभ्रस्यमन्ये मिथुना विवनी" ( क
।
माघारमा टटनेस नस्य. वृतपान और वहि-/ विधश (स.नि.) विरुद्ध यष्टोति' यि-यशाचा
पर यदि होता है।
.. . अवशीभूतारमा, जिसको आत्मो वशमें न हो । २ मृत्यु-
गम हो
क ति नापि मालूम हों, अधोत् हिलन लक्षणम
गति दिलने ' लक्षण भ्रष्टवुद्धि, वह जिसको युद्धि मृत्यु आने पर भ्रष्ट .
हो, तो उसे
या किसी दूसरी
सरों वस्तके हो गई हो। ३ अयाध्य, लाचार, येवस। ४.अचेतन,
कारणसे
आ या वह स्थान' अनुन्नत
हो निश्चेष्ट। ५ विहल, व्याकुल । ६ स्वाधीन, मो.काकूमें
। मृत्युमाता ८
मृत्युमीत। '
स्थिान साधासमता प्राप्त भौर महोन आवे ।
वि
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६२०
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