पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६४०

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विधाह के संबंधौ कुछ भी भामाम नहीं मिलता। फिर ७ । अक्षतयोनि हो या अपने कौमार पतिका त्याग कर दूसरे अकसे यह मालूम होता है. कि मृत व्यक्तिको विधवा पुरुष के साथ रह चुकी दो. और फिर अपने पति के साथ पत्नाफे साथ यहुतेरी सघाघे भी श्मशान-भूमिमें जाती पुनः मिलना चाहे, तो पुनः संहार कर उसे ले लेना थी। उसके साथ धे रोती थी। उपस्थित व्यक्ति चाहिये। उन सोको शोकाध बहाने तथा अन और पृताक्त | . अब वात यह रह गई, हि 'पुनासकार'या है। ' नेत्र हो कर सबसे पहले घरमें प्रवेश करने को कहते थे। फुल्लुकका कहना है-"पुनर्विवाहा संस्कारमहति ।" नेत्री अञ्जन तथा धृतात गेल होने का तात्पर्यो अच्छी इसका अर्थ यह है, कि "विवाह भागा जिसका तरहसे समझ नहीं आता। मालूम होता है, कि ऐसा संस्कार है" यही विवादापय संस्कार है। सधयाओं प्रति उपदेश दिया जाता था। ____ मनु करते हैं, कि पुनः MEकार करना कर्तव्य है। ___ याठयों को पढ़ने से मालूम होता है, कि पुक्यतो मनु पुनर्विवाहको पात नहीं करते। विवाह विधि विधवाओंके सहमरणको प्रथा न थी। जोवलोकी या में कन्याफे विवादमें जो सब मनुष्ठान विहित हैं, यदि घे संसारमें रद कर सन्तान आदिका पालन पोषण करना ही सप अनुष्ठान क्षत-योनि विधा अयया भाई गई हा उनका कर्तव्य और धर्म माना जाता था। हुई ,स्नियोंके पतिप्रहण करने अनुष्ठित होते तो मनु अवश्य फलतः वेदसंहिता विधवाविवाहका काई ही विधवाविवाह शाम्रसिद्ध कहते। किन्तु मनु महा उदाहरण नहीं मिलता। दूसरी ओर श्रतिमें नारियोंके राजने ऐसा शास्त्र प्रमाण या माचरण न देख कर ही लिये यह भर्ताका प्रतिपेध दिखाई देता है। विधाह कहा कि विवाहविधायक. शास्त्र में विधयाका के वैदिक मन्त्रोंमे विधयावियाह का कोई प्रमाण नहीं। पुनर्षियाह नहीं लिखा है। कुल्लाने गनु उक्त . मिलता। श्लोकको टोकामें भी स्पष्टरूपसे यहो कहा है। यहां । इसीसे मनुने लिखा है- ... युएलंकने जो "विवाहापय संस्कार". कहा है, यह यदि . "नोद्वाहिकेषु मन्त्रषु नियोगः कीर्णते पचित्। विवाहका हो अर्थ मान लिया जाय, तो कुल्लाको एक न विवाहविधायुक्त विधयावेदनं पुनः ॥" (६.६५) . उक्तिसे दूसरी उक्ति टकरा जाती है और दोनों उक्तियां इसकी कामें कुल्लूकने कहा है, कि "न विवाह | अनयस्थादोषदुष्ट हो जाती हैं । अतः विषाहाय्य विधायकशास्त्र अन्येन पुरुषेण सह पुनर्मिवाद 'उक्तः ।" संस्कार कहनेसे विवाह समझ में नहीं आता, यही कुल्लक अर्थात् विवाहविधायक शास्त्र में विधवाविवाहका का यथार्थ अभिप्राय है । मतपय कुल्लूको व्यापामें भी दूसरे पुरुष के साथ फिरसे विवाह करने का नियम नहीं। विधवावियाइका समर्धक प्रमाण नहीं मिलता। इससे स्पष्टरूपसे मालूम होता है, कि गागे चल कर . यह संस्कार किस सरहका है और किस तरह विधा भ्रातृनियोगको कोई विधवाविवाह न समझ ले, इस | या दूसरेके घर गई हुई स्त्री पत्नीवत् हो पीन व भती- शंकाको निवारण करनेके लिये मनुने साफ कह दिया | की गृहिणो घनतो थी, इसका उल्लेख कहीं कुछ नहीं है, फि विवाहविषयक शास्त्रमें विधवाविवाहका फुछ । मिलता। यह संस्कार चाहे जैसा ही क्यों न हो, किन्तु भो उल्लेख नहीं। मनुका यह वचन 'अवश्य हो, अकाट्य प्रमाणस्वरूप है, मनुसंहितामे विधवाविवाहका विधान न रहने पर कि विधायें पुनः सधयाओं की तरह शृङ्गार और सघया. अवस्था विशेषविधवाके उपपतिका विधान दिखाई। की तरह माहार विहार करने लगतो थो। किन्तु यह देता है। - (मनु १७५.१७६ ) । धात अवश्य ही मानने लायक है, कि मधंधानों की तरह स्त्रियां पुरुषों द्वारा परित्यक्त हो अथवा विधा उनका आदर मान नहीं होता था। इनके पति समाज हो कर पर पुरुषों के साथ पुत्रोत्पादन करें, तो में बैठ कर भोजन नहीं कर सकते थे। (मनु ३ १६६.९६७) उस पुनका नाम पौनर्भव होगा। यह विधया यदि । भेडा और भै सके व्यापारो, परपूपिति, शयवाहक