विवाह
प्रमाणित होता है। मनुष्योंके हृदयसे शामभाव | नहीं, फलतः पैतृसम्पत्ति के भी ये अधिकारी नहीं।
दया कर धार्धा नर नारियाको विवाह बन्धनको मजबूर विधवा यदि पुनः संस्कृता हा कर सन्तान उसान करे तो,
करने के लिये परम कारुणिक समाज-हितयो ऋपि यह सन्तान पीनर्भय कहा जाता है। पौनर्भव सन्तान
सब नियम प्रबार और प्रतिष्ठित कर गये हैं, उन सबको } यदि अपाड्क ग हैं, तो भो यह संतानके अधिकारसे
यश्चित नहीं हैं।
एकान्त चितसे आलोचना करने पर यथार्थमे विस्मित
वृषप्तीपति।
होना पड़ता है। विधाहके मन्त्रों को पढ़ने से यह सहज |
मनुसंहिताके समय ब्राह्मग अन्यान्य तीन वर्षों की
ही मालूम होता है, कि विवाह बहुत पवित्र सामाजिक
कन्यामो से विवाह कर सकते थे। किन्तु शास्त्रकी
बन्धन है भीर यह प्रथा गाई धर्म और पारमार्शिक
यह गाझा थो, किमाझग पहले सवर्णा कन्यासे ग्विाह
धर्मका परम मदायक है। इसके बाद इस विषयको
करें। गार्हस्थर धर्म के लिये सत्रणांका पाणिग्रहण
यथास्थान आलोचना को जायगो।
दिधिष पति । ।
प्रथमतः कर्तव्य कहा जाता था; किन्नु कामुक व्यक्ति
प्यभिधारका और एक फर्ता-दिधिपूाति है।
हर समय सब समाजों में कानूनको आज्ञा मान कर नहीं
नियोग विधिले वाध्य हो कर पुत्र उत्पन्न करने के लिये
चलते, ये स्वेच्छाचार के वशव तो हो कर काम करते है।
देवरका नियोग करना शास्त्रसम्मत विधि है। इस
मनुमाहिताके समय जो शक्ति यिवाहके इस मनातन
नियोगका एकमात्र उद्देश पुत्रोत्पादन है। किन्तु
नियमको उपेक्षा कर पहले हो एक शूद्राने विवाह कर
नियोग कार या प्रेम विजित है। अतएव यह व्यमि-
बैठते थे, वे वृरलापनि कहलाते थे। ग्राहाण-
समाज उनके साथ एक पंकि पैठ कर भोजन नहीं
. चार नहीं कहा जाता। दिधिपूाति याभिचारी है।
करता था। मनुसंहिताके तोमरे शायफ १४वें श्लोक-
मनु कहते हैं-
से १६ श्लोक तक इंप्त सम्म निपेय वाक्योंको पूर्ण
.."'तुम॑तस्य भार्यायो योऽनुरज्येत कामताः ।
रूपसं देखना चाहिये।
घयापि नियुक्तायां स शे यो दिघियूपतिः ॥"
परिवेत्ता।
अर्थात् मृत ज्येष्ठ भ्राताको निगम्मिणो भार्या के
हिन्दू समाजमें अविवाहित और विवाहके उपयुक्त
साथ जो वाक्ति कामके घशीभूत हो कर रमण करता है,
ज्येष्ठ भाईफे मौजुद रहते छोटे माईका विवाह निपिद्ध
यह उसीका नाम विधिपूति होता है। मनुकी|
है। जो इस निषेध वाक्यको उपेक्षा कर विवाद कर
राय इस श्रेणीकं ब्राह्मण हव्यकव्य मादि कायों में
लेते थे, यह परिवत्ता कहलाते थे। परिवेत्ता अपाङ
आमन्त्रण के अयोग्य हैं। परपूर्वापतिको भी कुछ
तय होते थे और समाज में निन्दित समझ जाते थे।
स्मृतिकारेने दिधिराति हो कहा है।
कन्यारण।
. . क पड और गोलक पुत्र।
हिन्दू समाज और एक बहुत बड़े दोषको दूर करने.
____ कुण्ड भार गोल कपुत व्यापचारक ,फल है। मनु के लिये शास्त्रकारोंने बड़ो चेष्टा की थी। इस दोपका
नाम कन्यापण है। हम बहुत तरहसे इस प्रथाके
'परदारेषु जायते दो पुत्री के पहगोलको।
अस्तित्य और इसका मूलोच्छेद करनेकी चेष्टा देखते
.. पत्यो जीपति क यह स्यान्मृते भारि गोक्षकः॥"
है। मनुसंहिता जिन अठारह तरह के विवाहका उल्लेन
' ' अर्थात् पराई स्त्रीस दो तरह के पुत्र उत्पन्न होते हैं। है, उनमें आसुरिक वियामें कन्या शुल्कको बात सबसे
सधया खोसे जार द्वारा जो सन्तान उत्पन्न होना है। पहले ही दिखाई देता है, जैसे:-
वह कुण्ड कहलाता और विधयाके गर्भसे उत्पन्न |
"शातिभ्यो द्रविण दत्त्वा कन्याय चैप शक्तितः ।
सन्तान गोला कहा जाता है। इस तरह के दोनों सन्तान
कन्यादान स्पारवन्धादासुरो धर्मच उच्यते।"
अपात य हैं। इन सवों का श्राद्धादिमें कुछ अधिकार ।
(मनु० २२१)
कहते हैं-
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६४५
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