पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६४६

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विवाह अर्थात् कन्या के पिता आदिको या कन्याको शास्त्र ) मी पिण्डदानका अधिकारी नहीं होती। . दच- नियमसे अधिक धन देकर विवाह करना हो आसुर- मीमांसा में लिखा है- विवाह है। ।

. खरीदी हुई विवाहिता नारी पनी नहीं कही जाती।

इस तरद धनदान करनेको प्रवृत्ति वरपक्षसे होतो वह पितृ कार्या तथा देव-कायों में पतिको सहर्धामणो है। वर या वरपक्ष कन्याको या कन्याके पिता आदिको नहाँ घन सकतो । पण्डित लोग इसे दासी कहा करते हैं।' ' धन दे कर सुन्दरा कन्या या गपने इच्छानुसार कन्या | उद्वाहनचोदत कश्यप-यवनों में भी कपकोताका विवाह करना आसुररिवाहका प्रमाण है। ऐसा विवाह भपवाद दिखाई देता है। . . शास्त्रकारों के विधानमे उचित नहों बतलाया गया था। जो लोभवशता पण.(धन) ले कर कन्यादान करते इसीसे इस विवाहका नाम भासुर रखा था। और भी हैं, वह आत्मविक्रयो पापाना महापापकारी घोर नरक. एक तरह के कन्यापण की प्रथा दिखाई देता है । इस तरह में जाते हैं और अपने कार के सात पुश्तको भो नरकमें फे कन्यापणमें पिता हो इच्छापूर्वक कन्या वेव कर धन | फेंकते हैं। (उदाहतत्व ) क्रियायोगसारगे लिखा है, कि कमाता है। शास्त्रकारगण इसके घोर विरोधी थे। उन्होंने 'वैकुण्ठवासी हरिशर्माक प्रति ब्रह्माने कदा है-. . इसको रोकने के लिये इसका घड़ी निन्दा की है। | 'दे द्विज । जो मूढ़ लोभवश कन्या विक्रय करता है, यह . विक्रयदोषज्ञ कन्याके पिता कभी विक्रय कर दाम पुरोपहद नामक धार नरक जाता है । ये वो हुई कन्या लेनेसे वह अपत्यविकरके पातकी होते हैं। मनुसंहिताके | जो पुल उत्पन्न होता है, वह चाण्डाल होता है, उसको . न अध्याय में लिखा है :- धर्म कोई अधिकार नहीं। "नानुशुश्रम जास्वेतत् पूर्वेष्वपि हि जन्मसु। (क्रियायोगसार १६वां अध्याय) शुल्कस शेन मूल्येन दिन्न दुहितविक्रयम् ।।" इन सब प्रमाणोंसे स्पष्ट सिदित होता है, कि शास्त्र- (मनु ९१००) । कार कन्या-विकको आताव दूरित कार्य समझते थे। . इस श्लोकसे प्रमाणित होता है, कि प्राचीन हिन्दूः । पेसो स्नोको पता तथा इसके गर्भ से उत्पन्न लड़केको पुन समाजमें भी कन्याका शुतक लेना अत्यन्त निन्दनीय था। नहीं कहा जाता था। ऐसो स्त्रियां दासी तथा उनके .. असभ्य समाज में कन्या विश्रापको प्रथा प्रचलित थी। गर्भसे जन्मे हुए पुन चाण्डाल कहे जाते थे। ऐसी स्त्रो. सभ्यताफे विकाशके साथ साथ कन्या-विक्रयको प्रथा के गर्भसे उत्पन्न सन्तान पिताके पिण्डदानका भो अधिः .. निन्दनीय समझी जाने लगो। किन्तु लेभो पिता उसकारो नहीं।. जो व्यक्ति अर्थलोभसे कन्या मना है, समय भी अपने लेमको रोक नहीं सकते थे। । वह सदा नरक यास करता है और अपने इस कार्य के . प्रकापसासे कन्या-विक्रर न कर अन्त में करपा के निमित्त । फलसे अपने माता-पिताको और ऊपरकी सात पी.ढ़यों- कुछ रुपये ले कर कन्या वेरने लगे। सूक्ष्मदगो शाख । को भी नरकमे फेंकता है। कारीको दृधि इस नई प्रथा पर भी पड़ी। उन्होंने नियम किन्तु परितापका विषय यह है, कि हिन्दुओंके . किया, कि कन्याको देने के लिये शास्त्रानुसार मिश्चिमात्र प्राथमिक सुसंस्कृत समाज में जिस कुप्रथा विरुद्ध शास्त्र शक्षा प्रदानको व्यवस्था है। स्थलपिशेष यह शुल: कारोंने शस्त्र उठाया था, जिस कुप्रथाको समाजसे दूर : कन्याकर्ता कन्याके नामसे ले कर स्वयं हो हड़प जाते । भगाने के लिये भीषण नारकीय चित्रको लोगों के सामने .. थे। शास्त्रकार इसकोदो "छत्न कन्याविकर" कह गये हैं। चित्रित किया था, जिसके बीजको उखाड़ फेंकने के लिये । अन्यान्य शास्त्रकारों ने भी कन्याविनायको अत्यन्त दाय- एक स्वरसे अकाट्य निषेधाज्ञाका प्रचार किया था, आज युक्त कहा है। . . . . . (अनिहिता) भी यह पापरूपिणी प्रथा समाजी मुह फैलाये खड़ी । क्रयकोता कन्या विवाह करमेसें पस्नो 'नामसें नहीं है। यह दोप यदि समाज के निमस्तरमें प्रभावित रह कही जाती। और तो या, उसके गर्नासे उत्पन्नापुन । कर गादिम असभ्य समाजको प्राचीन स्मृतिका साक्ष्य