पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६५१

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विवाह अपनी इच्छा होनेसे जो कार्य किया जाता है और | सपिण्ड हैं। ये हो सात और इनको सन्तान-सन्तति, इच्छा न होनेमे जो नहीं किया जाना, यही रागप्राप्त है। मापसमें जो सम्वन्ध है, यही सपिण्ड सम्बन्ध है । घरको वर्णाश्रमियोंके कितने ही कार्या वैध हैं अर्थात् शास्त्रमें। माताके साथ जिस कन्याका वैसा सम्यन्ध नहीं, वही विहित हैं। इसीसे उन सयोंका अनुष्ठान करना होता है, कन्या माताको असपिएडा है और पिताके साथ धैसा जैसे सन्ध्यावन्दनादि । और कितने ही कार्य हैं राग सम्पन्ध न हो तो, यह कन्या पिताकी असपिएडा कहलातो माप्त अर्थात् जो इच्छाधीन हैं, इच्छा होनेसे किये जाते है । "असपिएडा च" इस 'च' अक्षर पर कुछ लोग कहते है, नहीं होनेसे नहीं होते, जैसे भोजनादि। और कितने | है,कि इससे असगोला समझना होगा, माताके एक गोत्रो. ही कार्या हैं-वैध और रागप्राप्त-दोनों हो, यथा- | ताना कन्या विवाहविषयमें निषिद्धा है। यह मत सर्व- विवाह. क्योंकि संभोगेच्छाको प्रवलनाफे कारण पुरपमात्र यादिसम्मत नहीं है। को हो किसी एक स्रोको सदाके लिये अपनी पना लेने. सगोत्रा-सगात्रा कहनेसे एक गोत्रकी उत्पन्न को इच्छा रहती है। इसोसे यह रागप्राप्त कहा जाता है। कन्याका बोध होता है। पिताको असगाता पिनाक किन्तु रागप्राप्त होनेसे हम देखते हैं, कि हमारी इच्छाके | साथ एक गोलमें उत्पन्न नहीं है, ऐसी कन्या ही वियाह्य अनुमार जमी नभो ऐसी वैसी स्त्रीको ला कर सदाके है। 'मसगात्राव' इस चकार शम्दसे पिताको मसपिण्ड लिये उसे अपनी बना कर रखना शास्त्रसिद्ध विवाह कन्या भो पर्जनोय है, ऐसा समझना होगा। क्योंकि नहीं होता। इसलिये बियाह वैध और रागमाप्त दोनों गितृपक्षसे मप्तमी कन्या और मातृपक्षसे पञ्चमी कन्या छोड़ कर धर्मशास्त्रानुसार विवाह करना होगा। पितृ. ____ अब भसपिएडा और बसगोत्रा कन्यामक विषयको पक्ष और मातृपक्षसे पिता या पितृवन्धु और माता या आलोचना को जाये। मातृबन्धु इन दोनों कुलसे सप्तमी और पञ्चमी कन्या "मसगोताच या मातुरसगोमा च या पितु:। परित्याग कर विवाह करना होगा। सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मधुने ।" पितृवन्धु और मातृबन्धुसे तथा पिता और मातासे (उदाहतत्त्व ) क्रमशः सप्तम और पञ्चम पुरुष पर्यन्त विवाह करना न जो कन्या माताको असपिएडाई अर्थात् सपिण्ड । चाहिये। सगोत्रा और समानप्रवरा भी द्विजाति के लिये नहीं है और पिताको असगोत्रा है-ऐसी कन्या दो अधिवाहा हैं। इस तरहका विवाह होनेसे वह सन्तान सन्ततिके माथ पतित और शूदत्यको प्राप्त होता है। द्विजातियों के विवाह के लिये योग्य है। 'माताकी अंम- पिण्डा और पिताको असगोत्रा इन दोनों को समझने के पन्धु-पिताका फुफेरा, मोसेरा और ममेरा भाई पे सभी पितृशन्धु हैं। माताका ममेरा भाई, फुफेरा भाई और लिये पहले मपिण्ड और ' सगोत्रका' मर्थ समझना मौसेरा भाई मातृबन्धु कहा जाता है। पितामहको बहिन- चाहिये। सपिण्ड शब्दका अर्ष-जिनमें साक्षात् 'या परम्परा का लड़का, पितामहोको पहिनका पुत्र और पितामहीका भतीजा पे भी गितवन्धु है तथा मातामहीको पहनका सम्बन्धमे पिण्डारत सम्बन्ध वर्तमान है। पिता, पितामह और प्रपितामह ये तीनों माक्षात सम्बन्ध । पुन, मातामहकी वहिनका पुत्र और मातामहोका भतीजा घे मातृव.धु हैं । इस तरह पितृमातृवन्धुका. विचार पिण्ड पाते हैं। उसके ऊपर वृद्धप्रपितामहसे ऊर्ध्वतन कर कन्यानिरूपण करना चाहिये। तीन पुरुष पिएड नहीं पाते । पिण्ड बनाने के समय हाथमें ! पितृपक्षस सप्तमी कन्या और मातृपक्षसे पञ्चमा जो लेश रहता है ये फेवल वही पाते हैं, अतएव इसके कन्याको छोड़ कर विघाह करना चाहिये। किन्तु किसी साक्षात् सम्बन्धी पिएडयाप्ति नहीं होतो, परम्परासे किसीके मतसे पितृपक्ष पञ्चमी और मातृपक्षसे तृतीया होती है। श्राद्धकर्ताक पिण्डके साथ दातृत्व सम्बन्ध है, कन्या छोड़ कर विवाह कर सकते हैं। पे मत भी सर्च. अतएव शास्त्रकर्ता और उसके ऊर्ध्वतन ६ पुरष परस्पर । पादिसम्मत नहीं हैं। ... Vol xxI, 142