पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६५९

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'विवाह

  • भाजीपम रह कर गास्थ्य धर्मका पालन करो। मैं| हे वधू ! तुम श्वशुरकी, सासकी, मनदको भौर

इसी सौभाग्यके लिये तुम्हारा पाणिप्रण कर रहा। देवरादिको निकटयर्तिनी ना। (२) “ओं अधोररक्षरगतिघ्न्योधि (६) " मम प्रते ते हृदयं दधातु मम वित्तमनुवित्तग्नेऽस्तु । 'शिया पशुम्यः सुमनाः सुवाः । (मम वाचा मेकमना जुपस्व वृहस्पतित्वा नियनपतु मधम्॥" पोरसूखद धकामा स्याना शं (मन्नवाह्मण ) नो गय द्विपदे शं चतुस्पदे ॥" हे कन्ये ! अपना हृदय मेरे फर्ममें अर्पण करो। तुम्हारा (१० म०६५ स. ४४) वित्त मेरे चित्तके समान हो जाये अर्थात् हम लोगोंका अर्थात् हे वधू ! अमोघनेत्रा और अपतिनी! हृदय एक हो। तुम अनन्यमनी हो कर मेरी आशाओं का वनी, पशुओंकी हितकारिणी, महदया बुद्धिमती यना, पालन करे।। देवताओंके गुरु वृहस्पति तुम्हारे चित्तको तुम योरमसविनी ( और जीवित पुत्रप्रसविनी) बनी। मेरे प्रति विशेषरुपसे नियुक्त करें। देवकामा हो, मेरे और मेरे वाधुओं तथा पशुओं की ग्वेदके दशममएडलके ८५ सूक्तको मन्तिम शक् कल्याणकारिणी बनो। का मो टोक ऐसा हो अर्थ होता है। यह प्रा यजुर्वेदीय (३)"ॐ आ नः प्रजा जयतु प्रजापति ' चियाइको गांउ-बन्धन प्रक्रिगमें उल्लेख हुई है। ... राजरसाय समनपनमा। समझतु विश्वदेवा इत्यादि ४७ संख्या मृक् देखो। पतिलोकमाविश सतपदी गमन । शनो भय द्विपदे शं चतुष्पदे ग्वेदीय और यजुदोय विधाहपद्धति भो पाणि. (ऋक १०८५४३) प्रहणकाये और उसके लिये मन्त्र भी हैं। किन्तु सामदे. हे कम्ये ! प्रजापति अर्थात ब्रह्मा हम लोगोंफो पुत्र ; दोय विघाइपरति जितने मह हैं, उतने मनोका पौत्रादि प्रदान करे, जीवन भर हम लोगोंकी मेलसे.' उल्लेख नहीं है। पाणिग्रहणमा पहला मन अर्थात् , रखें। हे नधू ! तुम उत्तम कल्याणकारिणी बन कर मेरे : "गृभ्नामि ते सीमगत्याय हस्तम्" यह मंत्र प्रत्येक वेदोय घरमें प्रवेश करो। मेरे आत्मीया' तथा पशुमो के प्रति विशाह-पद्धतिम दिखाई देता है । ऋग्वेद और यजुर्वेद के मङ्गलकारिणी बना। ... पाणिग्रहणमंत्रों में केवल इस मंत्रका छोड़ कर सामवेदीय (४) "ॐ इमास्यमिन्द्र मोदयः सुपुत्रां सुभगां कृणु। पाणिप्रहणका और एक भी मन्न दिखाई नहीं देता। किंतु दशास्यां पुत्राणां धेहि पतिमेकादशघि ॥", पाणिप्रहण के मन पढ़नेसे मी विवाह मतम गहों होता। . . . (१०८५४४५) । सप्तपदगमनान्तर दी विवाह सिद्ध होता है। हे इन्द्र । तुम इस वधूतो पुनयती और सौभाग्य। मनुने लिखा है-पाणिग्रहणके सभी मब हारत्यके ' . यती वनामो। इसके गर्भसे दश पुत्र दी। इस अध्यमिधारी चिहवरूप हैं । विद्व नोंको समझना चाहिये, तरह दश पुत्र और एक में कुल ग्यारह इसका रस ! कि सात पैर चलने में सातयें पैरफ याद ही इन मंत्रक -होऊ1 निष्ठा संस्थापित हो गई। अर्थात् सात पर चलने के बाद (५) " सम्राज्ञो शुरे भय सम्राशो श्यय वां भर।। ही विवाह सिद्ध हो जाता है। ननान्दरि सन. मय सम्र. अधि देशपुn" लघुहारीतमें लिखा है-पाणिग्रहण कार्य समाप्त हो (१०८५४६) जानेसे ही जायात्य सिद्ध नहीं हो जाता। सात पैर चलनेके वाद हो जायारय सिद्ध होता है। माया हो - सामवेदीय मन्त्रवाण' में और विवाहपद्धतिमें यहाँ | वास्तयमें धर्मपतो है। ... . "जीवयः" नामका दौर भी एक अतिरिक पर दिखाई देता है। मनुने लिखा है-पतिकी घोररूप.पसोफे गमि पदीय विवाह-मन्त्रमें 'बोक्स इन्द नहीं है।... प्रवेश कर गर्मरूपमें अवस्थान करता है. और फिर Vol. xxI 144