पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६६७

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विवाह ५७७ से गृह-श्मशानमें लौटती है, उस समय भी उसो प्रहः। गृहिणी बौर सहधर्मिणी। वर्णको ध्यरस्या रह जाती हैं । अतश्व हिंदूविधादमें स्त्री शास्त्रीय वचने/फे प्रमाणोंसे प्रमाणित होता है, कि पुरुप संयोगको एक सामाजिक रीति नहों, इन्द्रियविलास हिंदुओंको विवाह-संस्कार गाईस्थ्याघ्रमका धर्मसाधन. का सामाजिक विधिनिदिए निदोष उपाय नहीं गया मूलक है। गास्थ्यधर्मके निमित्त स्रो-पुरुष एक सामाजिक वन्धन खीधर्म निरूपणमें भी स्त्रियोंके गाहस्थ्य धर्मके प्रति या Contract नहीं, यह एक कठोर या और हिन्दू । टूटि भाकर करने के बहुमेरे प्रमाण दिये गये हैं। पति- जीवनका एक महानत है। पनिमें प्रगाढ प्रेम, पति के प्रति और पतिको गाईस्थ्य- '. सामाजिक जीवनके यह एक महायत समझ कर कार्यावली के प्रति पत्नी या तोयाना संग आदिके संसाराधसमें विवाह अवश्य कर्तव्य है। इसीसे नाला : निमित्त बहुनर उपदेश शास्त्र में दिखाई देते हैं। ____ आज कल के पश्चिमीष लोग बहुतेका विश्वास कारोंने एक यायसे इसका विधान किया है । मिताक्षर- फे भाचाराध्यायों विवाहका नित्यत्व स्वीकृत हुआ है, कि भारतीय लोग अपनी पत्नियोंको दासी या लौंदी है । जैसे-"रतिपुत्रधर्मत्वेन विवाहस्त्रिविधः तत्र समझते हैं। आज कल स्त्रियों के प्रति उच्चतर सम्मान पुत्रार्थो द्विविधः नित्या काम्पश्च ।" हिन्दुर्मि दिखाया नहीं जाता। जो हिन्दूधर्मशास्त्रांक मर्थात् रति, पुत्र और धर्म इन तीनों के लिये ही विवाद मर्मम हैं, वे जानते हैं, कि हिइ.शास्त्रकारीने नारियों के होता है। इनमें पुनार्थ वियाह दो प्रकार है-नित्य और | प्रति फैमा उच्चतर सम्मान दिखाया है, सिया इसके काम्य । इसके द्वारा विशाहका नित्यत्व स्वीकृत हुमा मनुसंहितामें स्पष्ट करसे स्त्रियों के प्रति सम्मान दिखाने- है। गृहस्थाश्रमोके लिये पुत्रार्थ विवाह नित्य है, का उपदेश दिखाई देता है। मनु कहते हैं- उसे न करनेसे प्रत्यवाप होता है। अतएव ऋषिगण पुन प्रदान करती हैं, इससे ये महाभागा, पूजनीया सामाजिक हितसाधन और गार्हस्थ्य धर्म प्रतिपालनके और गृहकी शोभास्वरूपा हैं। गृहस्थोंके घरमे गृहिणो लिये विवाहका अयश्यातव्यताका विधान कर गये और गृहलक्ष्मीमें कुछ भी प्रभेद नहीं । पे अपत्यो हैं। सब दिन्दु-शानों में हो विवाह के नित्यत्व प्रति. त्पादन करतो हैं, उत्पन्न संतान का पालन करती हैं पादनके लिये वहुतेरे शास्त्रीय प्रमाण दिखाई देते हैं। और नित्य लोकयात्राको निदानस्वरूप हैं। ये ही गृह- "न रहेण गृहस्था स्याहार्य या कथ्यते ग्रहो। कार्यो'को मूलाधार हैं। अपात्योत्पादन, धर्ममार्ग, ___या मार्या गृह तत्र मार्लाहोन गृह पनम् ॥" शुश्रूषा, पयित्न रति, मात्मा और पितृगणके स्वर्ग आदि . (पृहत्पराशरसहिता १७०) खाके अधीन है। ( मनु वा अध्याय) फेवल गृहयाससे तो गृहस्य नहीं होता, मायके साथ मनुने कहा है-कल्याणकामो गृहस्थ नारियों को हर गृहमें यास करनेसे ही गृहस्थ होता है। जहां भार्या है। तरहसे बहुत सम्मान करे। (मनु ३१५६) वहां हो गृह, मायाहीन गृह वन तुल्य है। पाश्चात्य समाजतरविद् कोमटी (Gomte) मादि . . . . (पृहत्पराशरसहिता ४७०) . पंमित इसको अपेक्षा त्रिपोंके प्रति सम्मान दिखानेका कोई मरस्यसूक्त तत्र में लिखा है-- . . . उत्तम उपदेश नहीं दे सके हैं। फलतः 'हिंदू गृहिणीको मार्यादोन व्यक्तिको गति नहीं है, उसकी सब क्रिया साक्षात् गृहलक्ष्मी और धर्मका परम साधन समझ कर निष्फल ३, उसे देवपूजा और महायतका अधिकार | मादर करने की शिक्षा दे गये हैं। पत्नी जिससे सु. नहीं। एक पहियेके रथ और एकपचयाले पक्षीको तरह । गृहिणी हो कर पतिव्रता बने, इसके लिये विवाहकै दिन भार्याहीन व्यकि सभी कार्यों में अयोग्य है। भार्याहोन । हो पैसे मनोपदेश दिये जाते हैं। ध्यक्तिको सुन्न नहीं मिलता और न उसका घर-द्वार ध्रुपा द्वौ ध्रु या पृथ्वी ध्रुव विश्वमिदं जगत् । हो रहता है। अतपय हे घेशि ! सपश्चान्त होने ६ वा सपन्य ता इमेध या स्त्री पतिकुले इयम् ॥" पर भी तुम विवाह करना।.. .... : (विवाह मन्य) Vol xxI, 145