पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६९०

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६०२ विशिष्टाद्वैतवाद निषक नहीं हो सकता । रज्जु शान परिकल्पित सर्पका प्रपञ्चशक्तिके विना ब्राह्मको नहीं जाना जा सकता। निरर्थक होता है, सुवर्णज्ञान कुण्डलादिका निवर्शक इस कारण ब्रह्म प्रपञ्चशक्तिविशिए है। यह उनका नहीं होता। पत्य ज्ञान द्वारा नानाप नियर्सित नहीं। स्वमाय है। प्रपञ्च और ब्रह्म का भेद स्वाभा- होनेसे मोक्ष यस्थामें भी धन्वनावस्थाको तरह नानात्व विक है। देवता तथा योगिगण जिस प्रकार रहेगा। सतपय मुकि भी नहीं हो सकती। कारणान्तरनिरपेक्ष हो कर भी ' अचिन्त्य शक्ति वैष्णवाचार्यगण जिस प्रकार विशिष्टाद्वैतवादी है | प्रमावसे अनेक प्रकारको सूट कर सकते हैं। उसी प्रकार शैषाचार्यगण विशिष्ट शिवावतवादो. ब्रह्म भी उसी प्रकार अचिन्त्यशक्तिके प्रभावसे नाना हैं। उनका मन यह है, कि चित् और चित् अर्थात् कर्नामें परिणत हो सकते हैं। नाना रूपों में परिणत होने जीय और जहरूप प्रज्वविशिष्ट मात्मा शिव मद्वि | पर भी उनका पकत्व विलुप्त वा विकारित्य नहीं होता। तोय हैं । घो कारण है गौर फिर वही कार्ग हैं, इसोका अचिन्त्य अनन्त विविन शक्ति ब्रह्म ने अवस्थित है। सर्प- नाम विगिष्टगियावत है। विचिद् सभी अपक्ष शकिमान् परमेश्वर के लिये कुछ मा असाध्य और मस- शिवनामक ब्रह्माका शारीर है। वे जोकको तरद शरोर म्भव नहीं। अतपय यह सम्मा है और यह असम्भा, होते हुए भा जी की तरह दुष्प्रभोक्ता नहीं है। मनिष्ट ऐसा विचार परमेश्वरके विषय हो नहीं सकता। लौकिक भागकं प्रति शरोरसम्पन्य कारण नहीं है। अर्थात् | प्रमाण द्वारा जो सय वस्तु जानी जाती हैं, परमेश्वर उन शरीरी हानेसे हो जो मनिष्ट भोग घरमा होगा, इसका सय वस्तुओंसे विजातोग हैं। वे केवलमात्र शास्त्रगम्य कोई कारण नहीं है। पराधीनता अनिएभोगका कारण हैं। शास्त्रमे वे जिस प्रकार उपदिष्ट हुए है, घे उसी है। राजस जगधोन है। वे राजाको आज्ञाका प्रकार है, इसमें जरा भी सन्देह नहीं। लोकिक दृष्टान्ता- पालन नहीं करनेसे अनिष्ट भोग करते हैं। राजा नुसार उस विषय में विरोधशङ्का करना कर्सथ्य नहीं। पराधीन नहीं है, स्वाधीन हैं। वे शरीर होते हुए अपनो) क्योंकि, ये लोकातीत या अलौकिक हैं। अपनी अश के अनुपर्शनफे लिये अनिष्ट भोग नही! मलौकिक परमेश्वरफे विषयमें लौकिक द्दष्टान्त कुछ करते । जीय वरपरया है । ईश्वरकी गाझाका भी कार्य नहीं कर सकता। . यह सहजमें जाना जाता पालन नहीं करनेसे उन्हें अनिष्ट भोगना पड़ता है। है। परमेश्वरको मायाशक्ति अचिन्त्य अनन्त विचित्र ईश्वर स्याधीन हैं, इस कारण उनका अनिष्ट भांग नहीं शक्तियुक है। इस प्रकारके शक्तियुक्त मायाक्ति- है। शरीर और शरीर की तरह गुण और गुणीको तरह विशिष्ट परमेश्वर अपनी शक्ति के अश द्वारा प्रपल्याकार- विरियाद्वैतवाद शैवाचार्यों का अनुमत है। में परिणत तथा स्वतः या स्वयं प्रपश्चातीत हैं। . मृत्तका मोर घटकी तरह, कार्यकारणरूपमें तथा :: ब्रह्म प्रपञ्चाकारमें परिणत होते हैं; इस विषयमें गुण और गुणोको तरह विशेषण · विशेष्यरूपमें प्रश्न हो सकता है, कि कृत्स्न अर्थात् समस्त ब्रह्म विनामाराहित्य ही प्रपञ्च और ब्रह्मका अनन्तत्व है।। प्रपञ्चाफारमें परिणत होते हैं या ब्रह्मका एकदेश वा जिस प्रकार उपादान कारणके बिना कार्यका भाव । एकांश ! इसके उत्तरमें यदि कहा जाये, कि कृत्स्न मर्थात् सत्ता नहीं रहती, मृत्तिकाफे विना घर नहीं ब्रह्म जगदाफारमें अर्थात् कार्याकारमें परिणत होते हैं, रहता, सुवर्णके बिना कुण्डल नहीं रहता, गुणोंके । तो मूलोच्छेद हो जाता है तथा प्रप्तका दंष्टथत्व उपदेश दिना गुण नहीं रहता, उसी प्रकार प्रझके बिना प्रपञ्च और उसके उपायका श्रयणप्रननादि तथा शमदमादि. शक्ति नहीं रहती। उष्णताके विना जिस प्रकार यहि का उपदेश अनर्थक होता है। क्योंकि, कृतघ्न परिणाम जाननेका कोई उपाय नहीं उसी प्रकार शक्तिके दिना के पक्ष कार्यातिरिक्त ब्रह्म नहीं है। कार्य . अयनदृष्ट ब्रह्मको जानना असम्भव है। जिसके बिना जो नहीं, है, उनके दर्शनका उपदेश अनावश्यक है। इस कारण जाना जाता वह नद्विशिष्ट है। गुणफे विना श्रयणमननादि वा शमदमादि भी अनावश्यक है। परन् गुणी नहीं जाना जाता इसलिये गुणी गुणविशिष्ट है। समस्त कार्य देखने के लिये पदार्थतस्यको 'मालोचना