पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६९३

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विशिष्टाद्वैतवादिन-विशुद्धि ६०५ फलतः सृष्टिक पूर्वाका अद्वैतत्य कोई भी अस्वीकार के अन्दरके छः चक्रॉमसे पांचया चम्। “यह गलेमें अय- नहीं कर सकता। जो घस्तुगत्या अद्वैत है, वह किसी स्थित है। यह अकारादि पोड़ा स्वरयुक्त और घूम्रवर्ण- • भी कॉलमेंत नहीं हो सकता। वस्तुका अन्यथा- का होता है। इसमें सोलह 'पद्मदल होते हैं। उन · माय असम्मय है । आलोक कमी अन्धकार नहीं होता, १६ दलोंमें सकारादि १६ स्वरवर्ण हैं। इस चक्रमें अन्धकार कभी आलोक नहीं होता। वास्तविकभेद शिव.तथा नाकाश निवास करते हैं। (तन्त्रसार) और अभेद शेनोंके परस्पर विरोधी होनेसे ये सत्य नहीं पिशुस गणित-(Pure Mathamatics) यह गणित जिससे हो सकते। इसका एक सत्य और एक मिथ्या कल्पित ' पदार्थ के साथ कोई सम्बन्ध न रन कर केवल राशिका होगी। सूक्ष्मदृष्टिसे विचार करने पर मालूम होगा, कि अभेद निरूपण किया जाता है। • सत्य, भेद मिथ्या, अभेद या एकत्व और भेद नानात्व : विशुद्धचारित्र ( स० पु०) १ योधिसत्यभेद | (नि.) है। एकाधिक वस्तु ले कर नानात्वका व्ययहार होता २ जिसका चरित्र बहुत शुद्ध हो। , है। उनसे प्रत्येक वस्तु एक है, अतएय एकत्व व्यप- विशुद्धचारिन् (स' नि०) विशुद्ध चरति चर णिनि । हार अन्य निरपेक्ष और नामात्य व्यवहार एकत्व सापेश , विशुद्ध भावमें विचरणकारी, शुद्धाचारो, जिसका चरित्र है। भेद अभेदसे दुर्वल है. मतएव अभेद सत्य, : यहुत शुद्ध हो; भेद मिथ्या भादि अनेक प्रकारको युक्तियों द्वारा हुत विशुद्धता (सं० स्त्री० ) विशुद्धस्य भावः तल्-टाप् । .. और विशिष्टाद्वैतवाद निराकृत हुआ है। (वेदान्तद०)। विशुद्ध,दोनेका माय या धर्म, पवित्रता, शुचिता, उज्ज्व. ... वेदान्त शब्दमें विशेष विवरण देखो। लता, विशुद्धि । विगिधा तयादिन ( स० त्रि०) विशिष्ट युक्त मिलितं | विशुद्धत्व ( स० वि०.) विशुद्धता देखो। मद्धत पदनीति बदणिनि । जो विशिष्टाद्वैतवाद | विशुद्धासंह-बौद्धभेद। . • स्वीकार करते हों, रामानुज आदि विशिष्टाद्वैतवादी। विशुद्धि (सं० खो०) यि शुध-क्तिन् । पवित्रता, शोधन । विशिष्ठी (सं०:स्रो० ) शङ्कराचार्यको माता। . मनु आदि शास्त्रामे इसका पूरा विवरण है, कि कोई विशोर्ण ( सं० वि०) विशक्त । १ शुष्क, सूखा। २ कग, पदार्थ किसी तरह अपवित्र हो जाने पर उसकी शुद्धि दुबला, पतला। ३ वहुन पुरातन, जार्ण। ४ विश्लिप किस तरह होगो । यहां उसकी संक्षिप्त मालोचना का विघटित, पतित। . जाती है। पिशोर्णपर्ण (सं० पु०) विशोर्णानि पर्णानि यस्य ।। नानाविध वस्तुओंको शोषणप्रणाली-चांदी, साना निम्बरक्ष, नीमका पेड़। आदि धातु द्रश्य, मरकत आदि मगिमय पदार्श और विशान (सं० लि०) मस्तकपिहन, यिना सिरका । सभा पापाणक पदार्थ भस्म और जल अर्थात् मिट्टी (शतपथना० ४१३५१५या जल द्वारा शुद्ध होते या जल द्वारा शुद्ध होते हैं। गस मुका आदि पदार्श विशील (Fi० वि०) १ दुगोल, जिसका शील या चरितः | जलज, पाषाणमय पान और रौप्यपान यदि रेखाधुक न मच्छा न हो। २ दुष्ट, पाजो। हों, तो जल द्वारा धो देने शुद्ध हो जाते है। जल मोर - विशुक (सं० पु० ) श्वेतार्क, सफेद अफवन । अग्निके सपांगसे सोना चांदीकी उत्पत्ति हुई है। इसी ..विशुण्डि (सं० पु) कश्यपके एक पुत्र का नाम । कारणसे सोना और चांदी अपने उत्पत्तिस्थान जलसे विशुद्ध (सं० वि०) विशेषेण शुद्ध, घि-शुधाता । १ शुचि, शुद्ध हो जाते हैं। . . . . . पचिन, निर्मल, निदोप, जिसमें किसी प्रकारकी मिला. . तांदा, लोहा, कांसा, पीतल, रांगा और सोसाफे पाल, • • वट न हो। पर्याय- बल, विमल, विशद, योध्र, भस्म, खटाई और जलसे शुद्ध होते रहते हैं। अर्थात् अषदात, मनायिल, शुचि । (हेम) २-निभृत । ३ सत्य, लोहा जल द्वारा, कासा भस्म द्वारा, तावा और पीतल . . सथा। (अजपपात ) (पु.) ४ तबके अनुसार शरीर- 1. खटाईसे शुद्ध होता है। घृत तैल, इव दया-यदि काफ . : Val, xxI. 152