पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७१५

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विश्वविद्यालय इस समय जिस तरह भाक्सफोर्ड, लिप्सिक आदि । कुलपति घेतन लेना तो दूर रहा, एक एक फुलपति १० यूरोपीय विश्वविद्यालयोंसे उत्तीर्ण छात्र या अध्यापकों- 7 हजार शिष्यको केवल विद्यादान नहीं, छात्रको शिक्षाको की दात यूरोपीय मात्र हो भादर और यतके साथ सुनते | समाप्ति या समायर्शन तक अन्नदानादि द्वारा भरण. हैं. आज भी काशो या नवद्वीप (नदिया)-से शिक्षित पोषण करते थे। और उच्च उपाधिप्राप्त पण्डितमण्डलो भारतमें सन्नि जिस "मुनीना दशसाहस्र योऽनदानादिपोषणात् । .तरह आदर पाती है, वौद्धप्राधान्यकाल में जिस तरह अध्यापयति विप्रपिरती कुलपति स्मृतः ॥" नालन्दाको परिषद्से उत्तीर्ण और सम्मान प्राप्त आचार्य यहां भारत पुगपादिस अनि, शौनक, उग्रश्रवा आदि गण वौद्धजगत्के सव स्थानोंमें सम्मानलाभ करते और मुनिको हम कुलपति आख्यासे अभिहित देखते हैं। उनके उपदेश वेदवाक्यवत् वौद्धसमाज आपदके साथ वैदिक और पौराणिक युगमें जिस तरह उच्चशिक्षाके सुनता था, बौदिक समयमें अर्थात् ४।५ हजार वर्ष पहले लिपे जिन आश्रम निर्दिष्ट था, आदिवौद्धयुगमैं भी भारतवासी उसी तरह काश्मोरके आचार्यों की वात पहले वैसा ही व्यवहार दिखाई देता। पोछे यौद्धयुगमें मानने थे। इसीलिये मालूम होता है, कि काश्मीर भारतके पश्चिम प्रान्त में गान्धार और उद्यानमें नया पूर्ण- विद्याका मादिम्थान या उसका नाम इसीलिये शारदा- भारत विहारके भातर्गत नालन्दा बौद्ध विश्वविद्यालय पीठ है। प्रतिष्ठित हुए थे। उक्त दो स्थानों में जितने विहार और इस समय जिस तरह उच्च शिक्षाके लिये यिभिग्न | विद्याविहार स्थान थे, सदों पर फतृत्व करनेको भार शहरों या राजधानियों में विश्वविद्यालयों को प्रतिष्ठा देखी एक कुलपति पर निर्टिए था। जाता है, प्राचीन कालमें ऐसे जनवहुल स्थानों या | चीनपरिमाजक यूएनचुवङ्ग ७वीं शताब्दी में नालन्दा- राजधानियोंमें उस तरहकी उच्च शिक्षाको व्यवस्था न में आ कर यहां कुछ दिनों तक ठहरे थे। यहां उन्होंने थी। उपनयनके बाद ही द्विजातिको निर्जन भरण्य- बहुत बौद्धशाखोका अध्ययन किया था। उस समय घटित गुरुके आश्रममे जा ब्रह्मचर्य अवलम्बनपूर्वक भी नालन्दा ५० हजार शिक्षार्थी उपस्थित थे। चीन- अवस्थान करना पड़ता था। जो सब उच्च विद्या परिव्राजकोंके विवरणसे मालूम होता है, कि केवल पाण्डित्यलाभ करनेके अभिलापी होते, घे ३६ वर्ष तक भारत या चीन ही नहीं, सुदर कोरिया और भारतमहा- गुरुगृहमें रहते थे। उच्च शिक्षा शिक्षार्थीका अधम सागरके द्वीपपुजसे बहुतेरे छात्र यहां उच्च शिक्षालाम स्थान प्रथम काश्मीरमें शारदापोठ, इसके बाद वदरिका. करने के लिये माते थे। इस नालन्दाका विध्यविद्यालय श्रम और पौराणिक युगमें नैमिपारण्य निर्दिए था। देखने के लिये आ कर कोरियाके सुप्रसिद्ध श्रमण धार्य- उक्त तीनों स्थानोंसे हो भारतीय सहन सहन वर्म (A-di-y-po-mono ) सौर होइ पे ( Hoei-ye )ने आचार्यों का अभ्युदय हुआ था। प्रायः ६४० में यहां हो प्राण विसर्जन किया था। इस समय जैसे एक एक विश्वविद्यालयकै एक एक अध्यक्ष या 'प्रिन्सिपल ( Principal ) देखे जाते हैं, पहले समयमें भी पैदिक और पौराणिक युगमे पैसे, नीलकपठने महाभारतकी टीकामें लिखा है-"एको दश. ही अध्यक्षका होना प्रमाणित होता है। ऐसे अध्यक्षों

  • सहस्राणि योऽन्नदानादिना भवेत् । स प कुलपतिरिति"

का कुलपति नाम था। यूरोपीय या यहांके प्रिन्सिपल ! (११) घेतन ले कर उच्च शिक्षा देते हैं। किन्तु भारतके पूर्वदन | ___+ "तत् पृथिव्या सर्व विहारेषु फुलपतिर क्रियता।" मुख्छ- कटिक नाटकको इस उक्तिसे अच्छी तरह मानम होता है, कि to

  • "पत्रिंशदान्दिक चर्य गुरो त्रैवेदिक' ब्रतम् । । सन्की १ली शताप्दोमें भी फुलपतिको प्रया विलुप्त नहीं हुई थी

. . . . .(मनु.३१) . . I Charannes iemoire 32ff .