पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६४३ विश्वामित्र इधर विश्वामित्रने .फिर तपस्या एक सहस्र वर्ष , व ब्राह्मण्यलाभका भी अधिकारी नहीं । ब्रह्माने कहा - बिताया। ब्रह्माने देवों के साथ उनके यहां आ कर उन- तुम अब मी जितेन्द्रिय नहीं हो सके हो, जितेन्द्रिय बनने. .. से कहा,-"तुमने स्वयं गर्जित तपोयलसे आज ऋषित्व | की चेष्टा करो। यह कह ब्रह्मा अपने धामको चले लाभ किया।" विश्वामित्रको यह वर प्रदान कर ब्रह्मा गये। पोछे विश्वामित्र अर्ध्वयाहु, निरायलम्वन गौर . अपने लोकको चले गये। विश्वामित्रने सोचा, कि मैं | घायुमुवक हो कर तपस्या करने लगे। आव तक भी ग्राहाणत्व लाम नहीं कर सका। खिन्न | _ विश्वामित्रकी इस तरह कठोर तपस्या देख इन्द्रको मनसे फिर कठोर तपस्या करने में प्रवृत्त हुए। बड़ा भय हुआ। उन्होंने देवताओं से परामर्श कर इस रामायण और महाभारतमें मेनकाके साथ विश्वाधार तपस्या भई करनेके लिये रम्भा नाम्नी अप्सराको . मित्रके रति करने की बात लिखी है। विश्वामित्रके उग्र भेजा। रम्भाने आ कर उनके तपस्याभङ्गके लिये पहु। योगसाधना देख देवता अत्यन्त भयभीत हुए और | रयत मिति किसी तरह उसने विश्वामित्रके इन्द्रने उनका योग भङ्ग करने के लिये. मेनका अप्सराको । मनमें विकार उत्पन्न न कर पाया। उनके निकट भेजा। अप्सरा विश्वामित्रके योग मङ्ग विश्वामित्रने रम्माका अभिप्राय समझ कर क्रोधित कर अपने हाव-भावमें उनको रिझानेमें समर्श हुई। अभिशाप दिया. "तम सहन वर्ष तक पायाणमयी हो मेनका साथ विश्वामित्रने दश वर्ष तक सुखसे विता कर रहेगी ।" इसी कोपसे विश्वामित्रकी तपस्या दिया और उसीके परिणामसे मेनकाके गर्भसे शकु- विनष्ट हुई। अब उन्होंने मन ही मन स्थिर किया, कि न्तलाका जन्म हुमा। अपने इस चित्तवाञ्चल्यके लिये | मैं कभी कहन होगा और किमो तह निसाको भी विश्वामित पीछे अत्यन्त ऋद्ध हुए, और धोरता शाप न दंगा। मैं सैकड़ों वर्ष तक श्वासरुद्ध कर पूर्णक मेनकाको विदा कर उत्तर दिशाकी, हिमगिरिफे। तपश्चरण करूंगा। जितने दिनों तक मैं ब्राह्मण्य लाम मूलप्रदेशमें चले गये। यहां रह कर उन्होंने एक हजार न कर सकू उतने दिन तपस्या द्वारा शरीर पात वर्ष तक कठोर तपस्या की। करूंगा।' पोछे विश्वामिल यह स्थान तपोविघ्नकर समझ हिमालय पर्गत पर कौशिको नदी किनारे जा काम- विश्वामित्रन इस स्थानको तपोयिनकर समझ जयके लिये अति कठोर तपस्य में प्रवृत्त हुए । इस परित्याग कर पूर्व-दिशाको गमन किया और वहां तरह उनके सहन सहस्र वर्ष बीत गपे। उस समय सहन वर्षयापी अत्युत्तम मौनयत प्रहण कर ऋषियों और देवताओंका भय हुमा । अतः ये ब्रह्माके दुश्चर तपस्यामे निरत हुए । इस सहसा धर्ण विताने पर जव विश्वामिन्न अन्न भोजन करनेको उद्यत पास गये। उन्होंने जा कर ब्रह्मासे कहा, कि विश्वा । मित्रको तपस्यासे दम लोगों को बड़ा भय हुआ है। हुए, तब इन्द्रने ब्राह्मणरूप धारण कर उस अन्नको पाने- की प्रार्थना को। विश्वामित्र मौनी थे; इससे उन्होंने शाप उसको शीघ्र वर दे कर हमें अभय कीजिये । देवताओं की बात सुन कर ब्रह्माने तुरन्त विश्वामित्रके वाक्यका प्रयोग न कर अन्नको उस ब्राह्मणरूपधारी इन्द्र को दे दिया। पान जा कर कहा, कि "वत्स! तुम्हारे तपसे मैं बहुत । सन्तुष्ट हुमा । मतपय तुमको में ऋषिमुख्यत्व प्रदान विश्वामित्र फिर मौनावस्थामे हो निश्वासका रोध. करता है। | कर तपस्या निरत हुए। इससे उनके मस्तकसे धूए- इस तरह पर पाने के बाद विश्वामित्र सोचने लगे, कि के साथ अग्नि निकलने लगी और इसके द्वारा त्रिभुवन मैं स बार भी ब्राह्मणत्व लाभ न कर सका । अतः उन्होंने अग्निसन्तप्तको तरद लिए हो उठा । सारा जगत् पितामहसे कहा--"मापने, जब मुझको शुभकलाम उनकी तपस्यासे अस्थिर हो उठा । देव या भूपि समीने ब्रह्मर्षि कह कर सम्बोधन नहीं किया, तब मैंने समझ! अस्थिर हो ग्रह्मा पास जा कर कहा, "भगवन् ! विश्वा- • लिया, फियाज भी मैं मितेन्द्रिय हो न सका। मत- मिलके तपस्पासे निवृत्त न होने पर शोध ही संसार