पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७६

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७४ वोतव्याधि वातविध्व'सो रस, पलासादियटी, दशसारयटो, गग- | के स्पर्शका श न होना, मालस्य, के, अनि, जप, वैर. नादिवटी, सर्वाङ्गसुन्दर रस, तारकेश्वर और चिन्ता | की अबसन्नता, स्पर्शशक्तिका नाश और कटसे सञ्चालन, मणिरस । (रसेन्द्रसाररस यात-व्याधि रोगाधि०) ये सब लक्षण दिखाई देते हैं। चरक, सुश्रुत और वाग्भट प्रभृति वैद्यक अन्धों में इस उरुस्तम्भ होने के पहले अधिक निद्रा, अत्यन्त चिन्ता, . रोगका निदान और चिकित्सा आदिका विषय विशेष. ] स्तमित्य ज्वर, रोमाञ्च, अगचि, के और जंघा और ऊपर.. रूपसे लिखा हुआ है। विस्तार भयसे यहां उनका पृथक् | में दुर्शलता आदि ये हो सघ पूर्वरूप दिखाई देते हैं। रूपसे लिपिवद्ध किया न गया। इस रोगके मरिष्ट लक्षण-इस रोगमें दाह, सूई . पथ्यापथ्य :-वाताधि स्निग्ध और पुष्टि- चूमनेकी-प्ती वेदना, कम आदि उपद्रव होते हैं। ऐसा कर भोजनादि नितान्त उपयोगी हैं। दिनको पुराने होने पर रोगीके जाने की माशा नहीं रहती। चिकित्सा- चावलका भात, मूग, मटर और चनेकी दाल, कयई, | जिन क्रियाओं द्वारा कफको शान्ति होती है, अपच वायु: मगरी, रहु आदि मछलियोंका शोरवा, रेहूं का मुण्ड, का प्रकोप अधिक न होने पापे, उरुस्तम्भमें पैसेही वफरेका मांस, गुलर, परवल, अकई आदि तरकारियां चिकित्साकी जरूरत है। फिर भी कम किया द्वारा मक्खन, अंगूर, दाडिम, पका हुमा मोठा भाम आदि | कफको शान्त फर पीछे वायुको शान्त करना चाहिये। फल भी खाया जा सकता है। रातको पुसी या रोटी, | पहले स्वेद, लंघन और रुक्ष क्रिया करना कर्तव्य है। मोहनभोग (हलवा)। सयेरे गायको धारका दूध पोना अधिक रुक्षक्रिया द्वारा यायुके भधिक कुपित हो जानेसे अच्छा है। निद्रानाश आदि उपद्रव उठ खड़े होने पर स्नेह स्वेद वजितकर्म-गुरुपाक, तीक्ष्णयोर्य, रूखा, अम्ल-| आदिका व्यग्रहार करना चाहिये। डहर करनाफा फल । जनक दृश्य भोजन, श्रमजनक कार्य-सम्पादन, चिन्ता, भय, और सरसों या अश्वगन्धा, आफन्द, नीम या देवदासका शोक, क्रोध, मानसिक उद्वेग, मद्यपान, निरन्तर धैठे। मूल या दन्ती, इन्दुरफानी, रास्ता मोर सरसों या जेत, , रहना, आतपसेवा, इच्छाप्रतिकूल कार्यादि, मलमूत्र रास्ना, सहिजनकी छाल, घच, गुरुची और नीम ये कार्यो- तृष्णा, निद्रा और भूख्न मादिका घेग धारण, रातिको | में कोई एक योग गोमूनके साथ पीस कर उपस्तम्ममें जागरण और मैथुन अनिएकारक है। लेप करना होगा। सरसोंका चूर्ण और नोनी मिट्टी मधु उरुस्तम्भ और आमवात भी षातरोगमें माना गया | (सहद ) के साथ मिला कर या धतुरेके रसमें पीस कर है। इस लिये इन दोनों रोगोंके निदान और चिकित्सादि-| गरम गरम प्रलेप करना चाहिये। काले धतुरेको जड़ का विषय भी यहां लिखा जाता है- चेहीफल, लहसून, काली मिर्च, कालाजीग, जैतका पत्ता, उपस्तम्भ रोगका निदान-अधिक शीतल, उष्ण, | सहिजनको छाल और सरसों इन सब दवाओं को गौमूत्रके द्रव, कठिन, गुरु, स्निग्ध मा रूखा पदार्थ भोजन, पहलेका साध पोस गरम कर प्रलेप करनेसे इस रोगको शास्ति । फिया हुभा भोजन जब तक पचे नहीं, तब तक ही फिर होती है। भोजन, परिथम, शरीरका परिचालन, दिनको सोना और त्रिफला, पीपल, मोथा, कटकी इनका चूर्ण अध्या रात्रिजागरण, नादि कारणोंस कुपितयायु, श्लेष्मा, और केवल त्रिफला गौर कटकी, इन दो चीजोंका चूर्ण आध मामरतयुक्त पित्तको दुषित कर उसमें अवस्थित होने| तोला शहद के साथ सेवन करनेसे उसस्तम्भ माराम होता पर उरुस्तम्भ रोग उत्पन्न करता है। है। पीपलामूल, मेला और पोपल,-सका काढ़ा बना इसके लक्षण-इस रोगमें उरुस्तम्भ, गीतल, अचेतन कर इसमें मधुका छोटा दे कर पीनेसे भी यह रोग दूर भाराकान्त, और अत्यन्त घेदनायुक्त होता है और उठना | होता है। मल्लातकादि और पिप्पलंगदि पाचन, गुजा. बैठना मुश्किल हो जाता है। इस रोगमे अत्यात ] भद्रस, मटकट्यरतैल और महासन्धवादि तेल आदि । चिन्ता, गणवेदना, तिमिस्थ अर्थात् शरीरमें माँगे घन- गोपध भी उरुस्तम्म रागमें प्रयोग की जा सकती।