पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७६७

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विमोभयकरटक-विषय ६७३ विपमोमयकएटक (स.पु०) घण्टावदर। उन द्रव्याधित रूपरसादिके प्रति उनको भोगलालसा विषय (स'. पु०) विपिण्यन्ति स्वात्मकतया विषयिनं दिनों दिन बढ़ती जाती है। अतएव ये सब द्रव्य निरूपयन्ति सवनन्ति वा वि.पि अच्। १ चक्षुरादि ( झिति आदि) तदाधित रूपरसादिसे तथा उनके इन्द्रियप्राह्य वस्तुजात ; शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध माधुर्य्य अनुमयके कारण उससे उत्पन्ग सुखादि द्वारा ही मादि। पर्याय-गोचर, इन्द्रियार्थ। दुष्यणुक ( मिलित विषयो (विषयावद्ध पा संसारबद्ध जीव) का मासानीस दो परमाणु )-से आरम्भ करके नद, नदो, समुद्र, पर्वत निर्णय किया जा सकता है । अतएव ये सव (क्षिति आदि) तथा माणसे लगायत महावायु तक समस्त ब्रह्माण्ड विषय हैं। अर्थात् जीयका भोगसाधन जागतिक पदार्थमात्र हा यह प्रायः सभी अनुमान कर सकते हैं, कि अय- विषय-शब्द वाच्य है। यह भोग कहीं तो साक्षात् साय. स्रोता: पोगिगण विषयी नहीं हैं। क्योंकि माधारण रूप. में और कहीं परम्परा सम्बन्धमें हुआ करता है। फलतः रसादिक प्रति उनको जरा भी भागलिप्सा नहीं है। बिना किसी न किसी प्रयोजनके सिवा किसी पदार्थको परंतु हम लोगोंके इन्द्रियातीत (इन्द्रिय द्वारा प्रक्षणासमा) उत्पत्ति नहीं होती। अतएव दुष्यणुकसे ब्रह्माण्ड पर्यन्त ' तन्मात्रादि ( रूपतन्मान रसतन्मान आदि विषयों ) सभी विषय अर्थात् इन्द्रियगोचर ( इन्द्रियग्राह्य ) कहलात को उपलब्धि द्वारा घे लोग सुखका अनुभव करते है, हैं। . . . . इस कारण यदि सूक्ष्मविचारसे देखा जाय, तो ये लोग . न्याश्रित शुक्लकृष्ण गादि रूप च के विषय हैं। भो विषयी कहे जा सकते हैं। अर्थात् चक्ष प्राध हैं। इसी प्रकार मधुरादि छः .प्रकार. २ नित्यसेवित, जिसका प्रतिदिन सेवा किया गया फे रस ( मधुर, अम्ल, लघण, कटु, तिक्त और कपाय ) हो । ३ अव्यक्त, न प्रकट हो। (पु०) ४ शुक्र, रमनाप्राह्य अर्थात् जिहाके वियप हैं, द्रव्यनिष्ठ सुगन्ध | वोर्ग, रेतः । ५ जनपद । ६ कान्तादि ।...निया- और दुर्गन्ध्र प्राणेन्द्रियका विषय है। यगिन्द्रिप द्वारा मक। ८ सारोपा, आरोपाश्रय। सारोपा लक्षणा रस, द्रव्यके शोत, उष्ण और शीतोष्ण पा नातिशीतोष्ण प्रकार है-जहां भारोप्यमाण गयादि और गारोपके इन तीन प्रकारके गुणों का अनुभव होता, इस कारण ये | विषय वाहीकादिके गोत्ववाहोकस्यादि प्रकाशमान धर्म तीनों प्रकार के स्पर्श गुण त्यगिन्द्रिपके विषय हैं । फिर रहते हुए भी दोनों समानाधिकरण्य (समान-विभक्तिः आकाशनिष्ठ शम्दगुण श्रोतेन्द्रियका तथा आत्मनिष्ठ कत्य ) देखा जाता है, वहां सारापालक्षणा होती है। सुन, दान, इच्छा, द्वेष, यत्न आदि, मन अर्यात् अन्त- उक्त म्धल में भारीप्यमाण (शकटमें निपाच्यमान) गो रिन्द्रियका विषय है। तथा आरोपका विषय ( आध्रय) वाहीक ( शकट ), इन • सांख्यकारने विषय शब्दकी निरुक्ति इस प्रकार की दोनोंके यथाक्रम गोत्य और घादी तत्वरूप विमिन्मधर्मा- है,-विपिण्वन्ति विपपिण यनम्ति स्वेन रूपेण क्रान्त होने पर भी दोनोंके उत्तर एक ही प्रथमा विभक्ति निरूपणीयं कुर्वन्तीनि विषयाः पृथियादयः सुखादयश्न 1 | निग की गई जिससे 'सारोपालझणा' हुई तथा उसी अहमदादीनां अविषयाश्व तन्मात्र लक्षणाः योगीनां (मारोपा लक्षणा )के द्वारा ही उसका ( गौर्वाहीका इस उध्वं स्रोतसाच विषयाः।" (सांख्यतत्त्वको०) प्रयोगका ) पूर्योक प्रकार (गोवाह्य शकट )का अर्थ प्रका जो सब पदार्या जीवको संसार में भावद्ध करते हैं, जो शित होता है। इन्द्रिय (वः श्रोत्रादि ) द्वारा गृहीत हो कर अपनी विचारयोग्य वापय मधिकरणारययभेद । विपय प्रकृतिको अभिव्यक्तिसे विषयी ( भोगी व्यक्तियों ) का (विचार्यविषय ), विशय (संशय, सन्दोह), पूर्वपक्ष निर्णय करते हैं, उनका नाम विषय है । जैसे, क्षिति मादि (प्रश्न ), उत्तर योर निर्णय (सिद्धान्त) शास्त्रके इन पांच और मुख आदि क्योंकि इन शिति मादि द्रयोंके रूपरसादि अङ्गों को अधिकरण कहते हैं।२० देश । २१ आशय : १२ गुणों पर विमुग्ध हो जोय संसाग्में आवद्ध होते हैं तथा | व्याकरणके मतानुसार सामीप्य, पादेश, विषय और ' , Vol. xxI 169