पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७८८

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६८८ विष्णु "हे इन्द्र और विष्णु ! नुम दोनो इष्टप्रद दो, “मतपय । - विष्णुपुराणं गार भागयतोदि पुराणों में इने' ऋक - हुतावशिष्ट सोमपायी यजमान तुम्हारे दीप्तिपूर्ण मार्गमन मत्रोंकी प्रतिध्वनि खूब सुनाई देती है। भगवान् जो की प्रशंसा करता है। तुम लोग मरयों के लिये शत्रविम देवताओके मध्य शुद्धसत्त्वगुणोंको विलासभूमि हैं, दक अन्निसे प्रदेय अन्न निरन्तर मेतो घेदमें उसका भो सूत्र देखने में माता है। यथा, ऋग्वेद २। "तत्तदिदनस्य पौत्यं गृणोमसोस्य नातुरस्कस्य प्रथम मण्डलके १८६ सूक्तकी १०वीं मं में लिम्बा है,- विड़ हपः। ___ "मो अश्विनावसे कृणुध्वम् प्र पूषण स्वतवासोहि या पार्थिवानि त्रिभिरिदिगामभिरुर कमिष्टोकगागाय | सांन्ति । पापों विष्णुयांत विभुक्षा अच्छा सुम्नाय जीवसे।" । " . । यवतोय देवान् ।" हम लोग सयोंके स्वामी, पालनकर्ता, शत्रुरहित गौर हे मृत्यिकगणं ! हम लोगों की रक्षाके लिये अश्विद्वय , .. सेचनसमर्थ ( अर्थात् सरुण ) भगवान के पौरुषकी स्तुति | और पूषाको स्तुति करो । द्वे परहित भगवान् वायु . करते हैं। ये प्रशंसनीय है, लोकरक्षाके लिये उन्होंने और ऋभुक्षा नामक स्वाधीन घलविशिष्ट देवताओंका .. त्रिपदधिक्षेप द्वारा त्रिभुवनका परिकम किया था। · स्तय करे।। मैं सुणके निमित्त समस्त देवताओंको, . ३। “ताई पद्धन्ति मह्यस्य पौंस्यां नि मातरा । लागा। नयति रेतरोभुजे । ऋग्वेद के द्वितीय मण्डलके प्रारमर्म ही अग्निका दधाति पुत्रोऽयरं परं पितुर्नाम तृतीयमधिरोचने दिवः ।। स्तय किया गया है। उसमें अग्निको भी इन्द्र गौर .. समस्त आहुतियां प्रसिद्ध इन्द्रका पौरुष बढ़ाती हैं। " है। भगवान् कहा गया है। यथा-- . . . इन्द्र सयोंके मातृस्थानीय रेतः १ तथा उपभोगके लिये "स्वमग्न इन्द्रो वृषभा मतामसिहां विष्णुरंगगायो घही सामर्थ्य प्रदान करते है । उनके पुत्र का नाम निकृष्ट | नमस्या । और पिताका नाम उत्कृष्ट है । नीसरा (नाम) दुयुलोकके। त्वां ग्रहमा रयिविदग्रहह्मणपने त्वां विधतः सनमे । दीतिमान् प्रदेश में है। पुरन्ध्या " (श्य म०१ सू० ३ऋक ) प्रथम मण्डल के १५६ सूक्तमें भी घेत भगवान्के गुणकियादि मम्बन्ध में बहुत-सी बातें लिखी हैं। जैसे - ____ अर्थात् हे भग्ने ! तुम सत्लोकोंक अभीपवर्षा हो, १। तमस्य राजा वरुणम्तमधिना ऋतु मचन्त इसलिये तुम इन्द्र हो । तुम भगवान् हो, क्योंकि तुम '. मारुतस्य घेधसः । दाघार दक्षमुत्तममहर्जिद प्रजच उरुगाय हो अर्थात् समस्त लोकांफै स्तुत्य हो। । उक- .. विष्णुः सखिर्श अपोणूते।। गाय शन्दका अर्थ सोयणने इस प्रकार लिखा है, "वहुमि . राजा धरण और दोनों अश्वि गरुत्मान् विधाता गीयमानो नमस्य: नमस्कार्यश्न भयसि।")। तुम उस यक्षमें शामिल होचें। दोनों वि तथा भगवान् ब्राह्मणस्पति हो, तुम ब्रह्मा हो, तुम भनेक प्रकारके । एक साथ मिल कर उत्तम अहर्निद रसधारण और मेधका | पदार्थीको सृष्टि करते हो तथा अनेक प्रकारके पदार्थो में आवरण उन्मोचन करें। घिराज करते हो। .. २। भा यो थियार सनधाय दैथ्य इन्द्राय विष्णु पुराणमें विष्णुको उपेन्द्र कहा है। ऋग्वेदमें लिखा ।' सुरते सुकृत्तरः। वेधा अजिन्वत्रियस्य आर्यामृतस्य है, कि विष्णु इन्द्र के निकट आत्मीय हैं, दोनों एकव . भागे यजमानमाभजत् । सोमपान करते हैं। जो स्वर्गीय अतिशय शोभनकर्मा भगवान् इन्द्रके | • घेदके प्रत्येक मण्डल में विष्णुका माहारम्य और गुण माध' मिले हुए हैं, ' उन्ही' मेधावीने त्रिजगत् कार्यादि कीर्तित हुआ है। भाष्यकारगण और सीका. विकी आय को प्रसन्नं किया है नया यजमानको गक्षका कारगण कई तरहका अर्धा लगा कर उन सात स्थलों के भाग प्रदान किया है। .:.] अयोधकं सम्याग्धमें भिन्न भिन्न सिद्धान्त पर पहुंचे