पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७८९

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विष्णु ६८६ हैं। हम यहां पर तृतीय मण्डलसे ही दो एक ऋक् ! जो विशिष्ट गाभौगण रहती हैं, यह भी पहले लिखा उद्धत करते हैं। पधा- जा चुका है। उनका धाम जो माधुर्यका उत्सव है. वह __"विष्णा' स्तोमासः पुरुदस्ममर्का भगस्येव कारिणी । भो पहले एक ऋक से प्रमाणित किया जा चुका है, इन यामिनि ग्मन् । मव ऋोंसे हम लोग श्रीवृन्दावन वनविहारो श्रीकृष्णका उरुममः कहो यम्य पूर्वोर्न मदग्नि युवतयो भो आभास पा सकते हैं । नित्य, सत्य और पूर्ण जमिनीः ( ३ म० ५४ २ ० १४ ऋक् ) पदा वैदिक ऋपियों के तथा पावती महणियोंके योग- धनफे कारणस्वरूप यह स्तोल और साचनीय मन्त्र . नेत्रसै क्रमोत्कर्मके नियमानुसार बिस्फूरित हुए थे या इम यछमें भगवान्के पास जाये। भगवान उरुक्रमी हैं। नदों बह भी विधेय और चिन्तयितव्य है। पूर्घकालीना, युवतो मातास्वरूप दिशाएं उनको लङ्घन भगवान्को मालो झमें लानेके लिये विगण नहीं करती। अग्निसे प्रार्थना करते थे- सायणने यहां उरुक्रम शब्द का अर्थ ऐसा किया "अामणं घरणं मिलमेपामिन्द्राविष्णुमतो अश्विनीत । है-"उरुमहान फ्रमः पादविक्षेपो यस्य सः। त्रिवि- खण्यो अग्ने सुरक्षा सुधारा पदु वह सुहविपे जनाय ।" कमावतार पकनेय पादेन सर्व जगदाम्य निष्ठति।" (४ मारपू. ४ ऋक् ) येण्यास आदिने भी उपक्रम शब्दका ऐसा ही अर्थ अर्थात हे अग्ने ! तुम्हारी अश्व उत्तम है, रथ उत्तम महाभारत और पुराण में किया है। . . ' ' है तशा धन उत्तम है। तुम इन यजमानोंमे मे जिसके भगवान् भति पराशील है, वह घेदमें कई जगदलये उत्तम हो, उसके उद्देश्यसे अर्यामा वरुण मित इन्द्र देखा जाता है। महामारत और पुराणादिमें भनेक भगवान् और मरुत्गणको लाओ। भगवान और ममतगण प्रकारमे भगवान्को इम पराक्रमशीलताका उदाहरण भगवान जो यदिक देवताके मध्य बहुस्तुत, बहु- दिया गया है। महर्षि दयास येदके विभागकर्ता हैं, कीतित हैं, वौदिक ऋपियों के उद्घोषित ऋक मन्त्रमें उन्होंने महाभारत और पुराणादिमें वेदका सविस्तार अर्थ हमें ये सब स्तोत्रशाखाए सुनने में आती है। ऋग्वेद के किया है। सायणने अपने भाष्यमें ध्यासादिका ही मतुर्थामण्डलके तृतीय सूतको ७ओं को भी "विष्णय सम्मत अभिप्राय लिया है। उरगायाय" कहा गया है। सायणने उसका अर्धा किया ब्रह्मा सृष्टिकर्ता, भगवान् पालनकर्ता और रुद्र है "प्रभूनकीर्शये विष्णधे।" संहारकर्ता हैं, यह पौराणिक सिद्धांत इस देशकै आघाल पद्धयनिता मभीको मालूम है। भगवान् जो रक्षाकर्ता । भगवानका पराक्रम जो देयों का यहु-स्तुत है उसे हैं, ऋग्वेदमें कई जगह उसका उल्लेख देखने में आता सभा स्वीकार करते हैं। इन्द्रने गृत्रासुरका वध करने के लिये भगवानसे सहायता ली थी। यथा- "विष्ण गोपा परम पाति पाथ! "उत माता महिपमन्यवेनदमी त्वा जहति पुत्रदेवा। . प्रिया धामान्यमृताद घानः। । अथा प्रयोलमिन्द्रो हनिष्यन्त सखे विष्णो वितरं भनिष्ठा विश्वा भुवनानि वेद नि क्रमस्य ।" (४ म०१८ सू० ११ ऋक् ) . महदेवानामसुरत्वमेकम् ।" इन्द्रको माता महास्ने इन्द्रसे पूछा, 'हे पुन । देव. . . ३ म०.५५ स. ११ भृक ) नामनि क्या तुम्ह छोड दिया है ? इस पर इन्द्रनै भग. मर्यात् भगयान् समस्त जगतके रक्षक हैं। पेप्रियः। वान्की ओर देख कर कहा, 'सखे विष्णा ! यदि युनको तम अक्षयघामं धारण करते हैं तथा परमस्थान की रक्षा मारना चाहते हो तो विकमलाम करो। करते है । इत्यादि । ऋग्यदमें भगवानका "गोपा" यह भगवान के पराकमसे ही इन्द्रको शन घृत मारा गया विशेषण अनेक स्थलों में देखा जाता है। उनके धाममें / था। पुराणने इसका विस्तृत विवरण भाया है।

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