पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७९१

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विष्णु सौख्य, दास्य और मामनिवेदन इन नौ भक्तियोंका में जो दूसरा रूप धारण किया था, उसमें अपना रूप उल्लेख है, हम इस १०० सूक्तमें उसका भी सम्धान | छिपा कर केवल किरण द्वारा चारों भोर समाच्छन्न कर पाते हैं। दिया था। इसी कारण उन्हें "शिपिविशिष्ट कहा . विष्णु कितने 'प्राचीन देवता है, सूक्तकी ३ य अक्स गया है। उसका प्रमाण मिलती है। वैदिक समयसे ही उनका अष्टम मण्डलकं निम्नलिखित स्थलोंमें भगवान्का जो मान्य होता आ रहा है. इस ऋको उसका भी सम्यक नामोल्लेख है-६ सू-१२, १० सू-२, १२ सु-१६, प्रमाण है । विष्णका रूप किरणविशिष्ट है । जो १५ सू-८, २५ सू-११ और २७ सू-८, २९ सू- "सावित्रीमण्डलमध्ययत्ती" है ये किरणमय नहीं है, तो ७.३१ सू-१०, ३५सू-१ और १४, ६६ सू-१० तथा क्या है ७२ सू-७ऋकमें। "विचक्रमे पृथिवीमय पता क्षेत्राय विष्णु मनुपे दशस्यन् । इन सब कॉम ६६ सूतको १०वी ऋक्का भाव धवासो अम्य कोरयोजनास ऊबक्षिति सुजनिमा नकार ॥ कुछ अद्भुत है। यहां ऋक पढ़नेसे मालूम होता है, इन भगवान्ने मनुष्य के वसने के लिये उन्हें पृथियो । कि भगवान् इन्द्र कत्त, क प्रार्थित हो कर उनके लिये एक देनकी इच्छा करके वहां पादा किया था। इन विष्णु- सौ महिए और एक भयङ्कर शुकर संग्रह कर ले गये थे। के स्तोता निश्चल हो । सुजन्मा विष्णुने निवासस्थान | हमें इसका सर्थ समझौ न आया। फलतः वेदमन्त- निर्माण किया है। संग्रह और दार्शस ग्रह जो बहुत कठोर काम है, यह विष्णु जो केवल विश्वब्राह्माण्डके धारणकर्ता और वेदप्रन्थ पढ़नेसे सहज अनुमान किया जा सकता है। पालनकर्ता हैं सो नहीं। उन्होंने हो इस पृथिवीको नयम मण्डलके भी अनेक स्थानों में विष्णुका उल्लेख मनुष्य के रहने योग्य बना दिया है। अतएव विश्वनिर्माण | देखने में माता है । जैसे--३३ मू-३, ३४ सू-२, मा भगवान का कार्य है। ५६ स-४, ६३ स.-३, ६५ सू-२०, ६० सू-५, "किमित्त विष्णो परिचयं भूत्र ययक्षे शिपिवियो। ६ स-५ तथा १०० सू-६।। अस्मि। मा, वो अस्मदप गूह पतवदन्यरूपः समिधे दशम मण्डलके जिन सव स्थानों में भगवानका पभूध उल्लेख है, नीचे उसको तालिका दो गई है-- हे विष्णो ! मैं 'शिपिविष्ट' नामसे तुम्हारा स्तथ १ -३, ६५ सू-, ६६ स-४ तथा ५, ६६ ५ रता है। इसे प्रस्थापन करना क्या तुम्हें उचित है। सू-११, ११३ सू–१, १२८ सू-२, १४१ सू-३, तुमने संग्राममे अन्य रूप धारण किया है। हम लोगोम | १८१ सू-१, २ और ३ तथा १८४ सूतकी प्रथम कमें तुम अपना शरीर न छिपाओ। भगवान्का उल्लेख देखने में आता है। सायण शिपिविष्ट' शब्दका अर्धा किरणविशिष्ट ___ आधुनिक प्रतीच्य पण्डित हम लोगोंके येदादि अन्धों लगान हैं। सायणके भाप्यमे लिखा है कि पुराकालमें । में देवताओंका घ्यक्तिगत स्तोत्रपाठ सुन कर कहीं कहीं भगवान्ने अपना रूप त्याग कर अन्य रूप धारण किया | बड़े हो भ्रममें पड़ गये है। इन सर पण्डितों में मुहर था और संग्राममें वसिष्ठकी सहायता पहुचाई घो। साहब एक है। मुहरने जगह जगह इन्द्रका माहात्म्या- वसिष्ठने उन्हें पहचान कर इस ऋक्से उनका स्तव धिक्य स्तोत्र पाठ कर यह समझ लिया है, कि शायदमें किया। निरुतकारका कहना है, कि विष्णुका दूसरा नाम भगवानको अपेक्षा इन्द्रका ही मान्य मधिक है। इस “शिपिविष" है। फिर उपमन्यु कहते हैं, कि शिपिविए प्रकार माहात्म्यकीर्तनसूचक स्तोत्र समी देवताओंका नाम भगवानका कुत्सित नाम है। उपमन्युका यह गर्म देखा जाता है। एक सामान्य पदार्श स्तोलगे भी मुसङ्गत नहीं । रिसत नाम यदि होता, तो पसिष्ठ इस स्तूयमान पदार्थको सर्यापेक्षा प्रधान कहा है। स्तोत्रादि- नामसे उनका स्तय नहीं करते। पर हां, उन्होंने ग्राम में इस प्रकार पृथक पृथक वर्णन द्वारा यापसको . .. यो।