पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७९५

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__ . विष्ण ___स्वनी और रति ; पनाग्रसमूहमें पूर्वादिकमसे चक्र शड्ड, अडगुष्ठ द्वारा अनामिकाका अग्रभाग म्पर्श कर "नों गदा, पदुम, कौस्तुभ, मूसल, वह ग, धनमाला, उसके नमः पराय अन्तरात्मने अनिरुद्धाय नैवेद्य कल्पयामि . बाहर अप्रभाग, गरुड, दक्षिणमे शनिधि, याममें कह कर नैवेद्य मुद्रा दिखाघे तथा मूलमबका उच्चा. पद्मनिधि, पश्चिममें ध्वज, अग्निकोणमें विघ्न, नैन- रण कर 'अमुकदेवतां तर्पयामि' इस मन्त्रसे ४ यार में आर्या, यायुकोणमें दुर्गा नया ईशानमें सेनापति इन स नर्पण करे। बाद में 'अमुक देवतायै पतञ्जलममृता- मयकी पूजा करके उसके वाहर इन्द्रादि और अनादिकी | पिधानमसि' इस मबसे जलदान करने के बाद भाचम. पूजा करे । अनन्तर धूप और दीप दानके बाद यधाशक्ति नोय आदि देने होंगे। नैवेद्य यन्तु निवेदन करनी होती है। । विष्णुको नैवेदयके पाद साधारण पूजा-पद्धनिके विष्णुपूजा में नैवैद्य दानमें कुछ विशेषता है। गौन-' अनुसार विमजन कर मभी कार्य ममाप्त करे । मोलद . मीय तन्त्र के मतसे स्वर्ण, ताम्र या रौप्य पात्रमें अथवा लाख जप करनेसे विष्णुमत्रका पुरश्चरण होता है। पदमपत्र पर विष्णको मेवेद्य चढ़ाधे । भागमकल्पद्रुममें । "विकारक्षकं प्रजपेन्मनुमेनं समाहितः । लिग्ना है, कि राजत. कांस्य, ताम्र या मिट्टीका बरतन तद्दारा सरसिजे हुयान्मधुराप्लुतेः ॥" ( तन्त्रसार ) अथवा पलाशपन विष्णको नैवैद्य चढ़ानेके लिये स्मृतिग्रन्धादिमें जो विष्णु पूजाका विवरण दिया उनम है। गया है, विस्तार हो जानेके भयस यहां उसका उल्लेख . जो हो, ऊपर कहे गये किसी एक पात्रमें विष्णका | नहीं किया गया। आहिकतत्य आदि प्रयोंमें उमका नैवेद्य प्रस्तुत कर देवोदेशले पाद्य, अh और आच, सविस्तर विवरण आया है। मनीय धानके वाद 'फर' इस मूलमन्त्रसे उसे प्रोक्षण शिवपूनामें शियको अष्टमूर्ति की पूजा करके पोछे चक्रमुद्राम अभिरक्षण, 'य' मग्नमे दोषोंका मंशोधन, विणको अष्टमूत्ति को पूजा करनी होती है। विष्णकी र' मन्त्रसे दोपदहन तथा ' मन्त्रसे अमृतीकरण कर, - अष्टमूर्ति के नाम पे हैं-उन, महाविष्णु, ज्वलत, सम्प्र. गाठ बार मूल मंत्र जप करें। पोछे म धेनुमुद्रामे . - तापन, नृसिंह, भीषण, भीम और मृत्युञ्जय। इन अमृतीकरण कर गन्धपुष्प द्वारा पूजा करने के बाद कृता.. । सब नाममि चतुर्थी विभक्ति जोड कर यादि प्रणव अलि हो हरिसे प्रार्शना करे। अनन्तर "अस्य मुखता तथा अंतमें 'विष्णवे नम:' कह कर पूजा करे । विष्ण- ___मह प्रसयेत्" इस प्रकार माधना करके म्याहा और । र को इस अपमूर्ति का पूजन शिवलिङ्गके सम्मुखादि क्रम- मूलमंत्र उच्चारण करते हुए नैवेद्यमें जलदान करे।। मे करना होगा। (लिलार्चान सन्त्र ७५०) इसके बाद मूल मंत्रका उचारण कर तथा "पतन्नैवेद्य गरुडपुराणक २३२-२३४ अध्यायमै विषणुभक्ति, अमुकदेवतायै नमः” इस मंत्रसे दोनों हाथोंस नैवेद्य विष्णुका नमस्कार, पूजा, स्तुति भार ध्यानफे मम्मधर्म' पकड़ "ॐ निवेदयामि मयते जुषाणेद हविहर।" विस्तृत आलोचना की गई है। विस्तार हो जाने के इम मन्त्रम नैवेद्य अर्पण करे । अनन्तर 'अमूतो पस्तरण ममि' इम मनसे जल देने के वाद वामहस्नप्से प्रासमुद्रा भयसे यहां उनका उल्लेख नहीं किया गया। दिखा दक्षिण हस्त द्वारा प्रणवादि सभी मुद्रा दिखाये। विष्णु नामको व्युत्पत्ति। यथा "ॐ प्राणाय स्वाहा" यह कह कर अङ्ग गुष्ठ मत्स्यपुराणमें पृथिवीक मुषमे भगवान के कुछ नामो. ___ द्वारा कनिष्ठा और, अनामिका, 'ॐ पानाय स्वाहा' की व्युत्पत्ति इस प्रकार देखनेमें आती है। देहियो इस मंत्रसे मर गुष्ठ द्वारा मध्यमा और अनामा, 3 मध्य सिर्फ भगवान् ही अवशेष हैं। इसी कारण उनका उदाताय म्याहा' इस मनसे अङगुष्ठ द्वारा तजेनी, नाम शेष हुआ है। ब्रह्मादि देवताका ध्वंस है, कित मध्यमा और अनामा तथा 'ओं समानाय स्वाहा' कह कर भगवान्का ध्वंस नहीं है। वे अपने मान भविष्यात । भङ गुष्ठ द्वारा सर्वाड गुलि स्पर्श करे। मनन्तर दोनों । है, इसी कारण उनका नाम मन्युत है। यहा और इन्दादि