पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/८१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७१२ विसर्प प्रलेप दे। घटवृक्षकी नई जड़, केलेल्याभका गूदा | पला प्रलेप दिया जाय, तो वह सूरवने पर फट जाता है और कमल नाल इन्हें एकल पोस शतधौत घृताप्लुत कर और औषधके रसका असर करते न करते वह सूख जाना प्रलेप दे। पीतचन्दन, मुलेठो, नागकेश्वरं पुष्प, कैयत है। अत्यन्त पतला प्रलेप देनेसे जो सव होप होते हैं मुस्तक, चन्दन, पद्मकाष्ठ, तेजपन, बसकी जड़ और | निःस्नेह प्रलेपसे भी यही दोष प्रबल भायमें दिखाई देते प्रियङ गु इनका प्रलेप मो घृतयुक्त कर देनेसे लाभ पहुं- हैं। क्योंकि, निःस्नेह प्रलेप सूख कर घ्याधिको पीडित नता है। अनन्तमूल, पद्मफेशर, 'खसकी जड़, नीलो करता है। त्पल, मजीठ, चन्दन, लेाध और हरीतकी इनका भी लडित विसरोगोको चोनी और मधुसंयुक्त रुक्ष,. प्रलेप हितकर है। खमको जड़, रेणुक, लोध, मुलेठी, मन्ध अथवा मधुर द्रव्यसे प्रस्तुन मन्य, अनार और नोलोत्पल, दूर्वा और धूना इन्हे घृतात कर उसका भी ! भोपले आदिके रसमें थोड़ा वट्टा बाल उस मन्धको प्रलेप देनेसे विशेष उपकार होता है। पोने दे। सिद्धजलमें सत्तूको घोल कर वह मन्थ फालसे, ट्रक रसमें घृतपाक कर उसे विसर्पके पर लगानेसे | किशमिश और खजुरके साथ पिलानेसे भो लाभ पहु- विसर्पक्षत सूख जाता है। दारुहरिद्राका त्वक, मुलेठी, चता है। लडित विसर्प रोगीको जी और भातका तर्पण लोध और नागेश्वर इनके चूर्णका प्रयोग करनेसे यिसर्गतय्यार कर उसे घृतादि स्नेहके साथ पीने तथा उसके क्षत सूख जाता है। परिपाक होने पर मूग आदि जूसके साथ पुराने चायल. परवलका पत्ता, नोम, त्रिफला, मुलेठी और "नोलो- का भात खानेको देना चाहिये। त्पल इनफे काढ़े की सेक देने अथवा इनके काढ़े वा इस रोगमें परिपक्क पुरातन रकशालि, श्वेतशालि .. चूरेके साथ घृतपाक कर उसे क्षतस्थानमें लगानेसे वह | महागालि और पष्टिक तण्डुल (साठीधानका भात) विशेष शीघ्र हो सूख जाता है। विसर्पके क्षतकी' जगह जव | लाभदायक है। जौ, गेहू, चावल इनमेंसे जो जिसके लिये कोई कायादि सिञ्चन करना होता है, तब प्रलेपको हटा अभ्यस्त है उसके लिये वही उपकारी है। विदाइजनक देना आवश्यक है। यदि धो डालने पर भी प्रलेप अच्छो | अन्नपान, क्षोरमत्स्यादि विरुद्ध भोजन, दिघानिद्रा, कोध, तरह न उठे, तो बार बार बहुत पतला प्रलेप देना उचित व्यायाम, सूर्य, अग्निसन्ताप तथा प्रवल वायुसेवन ये सब है। किन्तु कफज विसर्पमें घना प्रलेप देना होगा। प्रलेप इस रोगमें विशेष उपकारी है। ' अगुष्ठके तिहाई भागफे समान मोटा रहेगा । यह अति ___ उक्त प्रकारको चिकित्सा शीतवठ्ठल चिकित्सा स्निग्ध वा अतिरक्षा अत्यन्त गाढ़ा या अत्यन्त पतला | पैत्तिक विसर्पमें, सक्षबहुल चिकित्सा श्लैष्मिक विमर्ग में, न हो, समभावमें उसका रहना उचित है। वासी प्रलेप स्नैदिक चिकित्सा वातिक विसर्पमें, पातपित्तप्रशमन भूल कर भी नहीं देना चाहिये । जो प्रलेप एक घार दिया चिकित्सा अग्निविसमें तथा कफपित्तशमन चिकित्सा जा चुका है, उसका फिरसे प्रयोग करनेसे विसर्पका कर्दमक विसर्पमें प्रशस्त है। पलेद और शुलुनि उपस्थित होती है । वस्त्रखण्ड में प्रलेप | ___रक्तपित्तोल्यण प्रविसर्ग में प्रथमतः रक्षण, लकुन, द्रव्यका चूर्ण रख कर पुलटिशको तरह प्रलेप देनेसे पञ्चवल्कलको परिपेक और प्रलेप, जलीका द्वारा रक- विसर्पक्षत खिन्न होता है तथा उससे स्वेद जन्य पोड। मोक्षण, कपाय और तिक्त द्रष्यके फाथ प्रयोगयमन का और का उत्पन्न होता है। वस्त्रखण्डके ऊपर और विरेचनका व्यवहार करे। घमन और विरेचन प्रलेप देनेस जो दोष होता है, प्रलेपके ऊपर प्रलेप द्वारा ऊर्य और अर्द्ध संशुद्ध होता है तथा जलौका देनेसे भी यही दोष होता है। यदि मति स्निाधे द्वारा रक्त सेचित होनेसे जय रक्त और पित्तको घा अतिद्रव प्रलेप 'प्रयुक्त हो, तो उस प्रलेपके । प्रशान्ति होती है, तय पातश्लेष्महर योगोंका प्रयोग करना चमड़े में अच्छी तरह श्लिष्ट न होनेके कारण उससे उचित है। दोपको सम्पम् शान्ति नहीं होती। यदि अत्यन्त प्राय विसर्पम शूलपत् वेदना रदनेसे उष्ण उत्कारिक